#MNN@24X7 दरभंगा, आज 19 अगस्त को विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, ल. ना. मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और आरसी प्रसाद सिंह की जयंती मनाई गई।

प्रो० उमेश कुमार उत्पल ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि कबीर पर काम करते हुए द्विवेदीजी स्वयं कबीर हो गए थे। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की तत्समनिष्ठ भाषा की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि वे इतिहास में डूब कर रचना करने वाले साहित्यकार थे। रबिन्द्रनाथ ठाकुर ने द्विवेदीजी की प्रतिभा को जौहरी की भांति पहचान लिया था इसी लिए उन्हें कबीर पर काम करने को कहा था। ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ निबंध में नाखून को पाशविकता का प्रतीक बताया गया है लेकिन एक संस्मरण सुनाते हुए प्रो० उत्पल ने उसे प्रेम का प्रतीक बताया।

हजारी प्रसाद द्विवेदी को उन्होंने हिंदी साहित्य का ऐतिहासिक व्यक्तित्व बताया। आरसी प्रसाद सिंह को उन्होंने दिनकर की बराबरी का कवि बताया। लहरियासराय में उन्होंने एक प्रेस की स्थापना की थी जहाँ भारत के सभी सम्मानित साहित्यकार आया करते थे। अपनी वाणी को विराम देते हुए प्रो० उत्पल ने कहा कि आरसी प्रसाद सिंह की कई रचनाएं आज भी अप्रकाशित हैं और यह हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों का दायित्व है कि उसे पुस्तकाकार स्वरूप प्रदान कर उनकी कृतियों को देश-विदेश तक पहुंचाएं।

आरसी प्रसाद की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि वे मिथिला की ही माटी के हीरे थे और इस मिट्टी से कई हीरे निकले हैं,ऐसे में उनके जन्मस्थलों के भ्रमण हेतु हिंदी विभाग साहित्यिक यात्रा का आयोजन करेगा।डॉ० सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि द्विवेदी जी से पहले किसी भी हिंदी साहित्यकार के पास वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण था ही नहीं जो उन्होंने रबिन्द्रनाथ ठाकुर से प्राप्त किया था।

डॉ० सुमन ने कहा कि कबीर के लिए हिंदी साहित्य वर्जित क्षेत्र था लेकिन रबिन्द्रनाथ की प्रेरणा से द्विवेदीजी ने कबीर पर कार्य शुरू किया जो हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ। ललित निबंधकार के रूप में द्विवेदीजी ने बहुत ख्याति पायी। हिंदी में दूसरी परम्परा की खोज करने वाले आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं। दूसरी परम्परा का अर्थ है लोक की परंपरा। बाद के सभी हिंदी साहित्यकारों ने द्विवेदीजी की लेखनी से प्रेरणा ग्रहण की।

इस अवसर पर बीज वक्ता के रूप में डॉ० आनन्द प्रकाश गुप्ता ने कहा कि उन्होंने अबाध गति से हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में कलम चलाई। वे एक साथ इतिहासकार और व्याकरण के प्रकांड विद्वान थे। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में उनका बहुमूल्य योगदान है। एक उपन्यासकार के रूप में भी उन्होंने चार उपन्यासों की रचना की। इन उपन्यासों में नारी विमर्श के बीज दिखाई पड़ते हैं।

मौके पर सियाराम मुखिया, समीर कुमार, सुभद्रा कुमारी, कंचन रजक आदि ने भी अपने विचार रखे। मंच संचालन कृष्णा अनुराग ने किया। डॉ० मंजरी खरे, अनुराधा कुमारी समेत कई शिक्षक, शोधार्थी और छात्र इस अवसर पर उपस्थित रहे।