‘आजादी का अमृत महोत्सव और आदिवासी समाज’ विषय पर हुआ विद्वानों के बीच हुआ विचार- मंथन।

आदिवासी भारत की समृद्धि धरोहर के रक्षक, जिनका स्वाधीनता संग्राम में ऐतिहासिक योगदान उल्लेखनीय- डा चौरसिया।

विश्व आदिवासी दिवस’ के उपलक्ष्य में मारवाड़ी कॉलेज के समाजशास्त्र विभाग द्वारा ‘आजादी का अमृत महोत्सव और आदिवासी समाज’ विषयक राष्ट्रीय वेबीनार का आयोजन किया गया, जिसका उद्घाटन प्रधानाचार्य डा दिलीप कुमार द्वारा किया गया। उन्होंने भारतीय जनतंत्र के द्वारा किए गए विभिन्न प्रयासों की ओर ध्यानाकर्षित करते हुए आजादी के 75 सालों में आदिवासी समाज की प्रगति पर चर्चा की।

वेबीनार में अभ्यागतों का स्वागत एवं विषय प्रवेश कराते हुए संस्कृत विभागाध्यक्ष डा विकास सिंह ने कहा कि इस वर्ष भारत सरकार आजादी का अमृत महोत्सव मना रही है, ऐसे में तमाम वंचित समाज के लिए भारतीय जनतंत्र की उपलब्धियों पर चर्चा करना जरूरी है। आजादी के इन 75 सालों में आदिवासी समाज ने जल, जंगल, जमीन की लड़ाई से लेकर रायसीना तक का सफर तय किया है। महामहिम द्रौपदी मुर्मू के रूप में भारतीय गणतंत्र को उसका पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिला है। आदिवासी समाज से भारत ने सह अस्तित्व, समावेशी व समग्र चिंतन और सतत विकास सीखा है। जन- जीवन के नियमों में जनतंत्र से लेकर परस्पर सौहार्द्र भारत ने आदिवासी समाज से जाना है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सी एम कॉलेज, दरभंगा के संस्कृत विभागाध्यक्ष डा आर एन चौरसिया ने कहा कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी आदिवासी समुदायों का समुचित विकास नहीं हुआ है। यद्यपि उनके समावेशी विकास हेतु कई योजनाएं और नीतियां लागू की गई हैं, ताकि उन्हें मानवीय सुविधाएं एवं सामाजिक प्रतिष्ठा मिल सके। उनकी जड़ें प्रकृति, परंपरिक बोलचाल और लोक संस्कृति से गहराई से जुड़ी हैं और वे प्रायः अपने समुदाय तक ही सीमित रहे हैं। आदिवासी हमारे देश की समृद्ध धरोहर को जीवित रखें हुए हैं, जिनका स्वाधीनता संग्राम में ऐतिहासिक योगदान उल्लेखनीय है। आदिवासी शिक्षा, खेलकूद, नृत्य, गायन व पेंटिंग आदि क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताएं हासिल कर भारतीय सांस्कृतिक परंपरा को काफी आगे बढ़ाया है। आदिवासी खिलाड़ी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में अपने राज्य और देश का नाम रोशन कर रहे हैं। बस जरूरत है कि नीति- निर्माता आदिवासियों के अधिकारों की पूरी रक्षा करें, ताकि उनका समावेशी व सर्वांगीण विकास हो सके।

डा चौरसिया ने कहा कि आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट संस्कृति है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने उनकी संस्कृति पर गंभीर प्रभाव डाला है। उद्योगों की स्थापना व बांध- निर्माण जैसी विभिन्न विकास योजनाओं से इन्हें बार-बार विस्थापित होना पड़ता है, जिससे उनकी मान्यताओं, रीति-रिवाजों और व्यावहारों में बाधा पहुंचती है। आदिवासियों का सादगी भरा रहन- सहन जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण जैसे मुद्दों से जूझ रहे विश्व को सीख दे रहा है।

वेबीनार की मुख्य अतिथि ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय की उपकुलसचिव द्वितीय डा दिव्या रानी हंसदा थी। उन्होंने आदिवासी जीवन के विभिन्न पहलुओं, उनके क्रियाकलापों से लेकर जंगल की कठिनाइयों, शिक्षा के लिए प्रयासों, चिकित्सा और रोटी- कपड़ा जैसी बुनियादी सुविधाओं के संदर्भ में आदिवासियों के संघर्ष पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि आधुनिक समय में लोग केवल दलित- आदिवासियों के आरक्षण पर बात करते हैं, वे लोग वहां कितनी विकट परिस्थितियों से होकर वहां पहुंचते हैं, उस पर सब चुप हो जाते हैं। आदिवासियों के पास जरूरत की आधारभूत सुविधाएं अभी तक सरकारें पहुंचा नहीं पायी हैं, किंतु सकारात्मक रहा जा सकता है कि धीरे धीरे पहुंच रही हैं। झारखंड के विभिन्न संदर्भों से उन्होंने आदिवासी जीवन पर गंभीरता से सूक्ष्म विश्लेषण किया।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के सहायक प्राध्यापक डा वीरेन्द्र मीणा ने मुख्य वक्तव्य देते हुए कहा कि आजादी के अमृत महोत्सव काल में आदिवासी समाज के संबंध में भी गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। आदिवासी समाज का राष्ट्र निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आज नए भारत के निर्माण के लिए यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जाति और वर्ग भेदमुक्त बने नए भारत का मॉडल हवा- हवाई सिद्ध होगा। जाति और वर्ग मुक्त भारत निर्माण के लिए आदिवासी हमेशा से प्रयासरत रहे हैं।

उन्होंने कभी भी किसी पर साम्राज्य स्थापित करने की कोई योजना नहीं बनायी, भले ही उनपर ज्यादती हुई हो या हमले किए गए हो। वे कभी भी देश के खिलाफ आतंकवादी घटनाओं में शामिल नहीं होना चाहते। वे चाहते हैं सभी जातियों और वर्गों के लोग या तो शांति से रहे या फिर इन वर्ग भेदों को मिटाकर नए राष्ट्र का निर्माण हो। अनेकता में एकता को यदि हम निभाने में समर्थ नहीं है तो इस अनेकता में एकता को अराजकता में नहीं बदला जाए।

वेबीनार में कपिलवस्तु, उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थ विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के सहायक प्राध्यापक डा बाल गंगाधर ने सम्मानित अतिथि के रूप में बोलते हुए कहा कि बाबा साहब ने आदिवासी समाज के सभी हितों के संविधान में हिस्सेदारी के लिए अनुसूचित जाति के साथ ही आदिवासी समाज को आरक्षण दिया। डॉ अम्बेडकर ने संविधान में आदिवासी शब्द के लिए अंग्रेजी में ट्राइब शब्द का इस्तेमाल किये लेकिन बाद में अंग्रेजी में लिखित संविधान का हिन्दी अनुवाद कुछ जातिवादी मानसिकता से ग्रसित लोगों ने अनुसूचित जनजाति किया, जबकि शेड्यूल्ड ट्राइब का अनुवाद अनुसूचित आदिवासी होता है।

डॉ अम्बेडकर ने जयपाल सिंह मुंडा के साथ मिलकर तमाम आदिवासी हितों के लिए संविधान में अनुच्छेद और शेड्यूल्ड बनाये। देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम आदिवासियों की अगुवाई में लड़ा गया। सन्थाल विद्रोह इसका उदाहरण है जो कि मंगल पांडे के जन्म से कई दशक पहले लड़ा गया। उल्लेखनीय है कि आज़ादी की लड़ाई को लेकर अक्सर लोगों में यह धारणा बनाई जाती है कि आदिवासी सिर्फ अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आन्दोलन किये, जबकि सच यह है कि सन्थाल, हूल, उरांव, भूमिज, तमाड़, मुण्डा आदि आंदोलन आदिवासी इलाकों के ज़मींदारों, सूदखोरों, महाजनों, पुरोहितों के ख़िलाफ़ था। क्योंकि यही लोग स्थायी बन्दोबस्त के तहत आदिवासियों की ज़मीन छीन रहे थे। आदिवासी जब इनके ख़िलाफ़ लामबन्द होकर आन्दोलन किये तो ये अंग्रेजों के साथ मिलकर आदिवासी आन्दोलन को दबाने का काम किये, जिसकी चर्चा बहुत से इतिहासकार कर चुके हैं। आज यही ज़मींदार वर्ग सत्ता के गलियारे में बैठकर आदिवासी इलाकों में उनकी ज़मीनों से उन्हें बेदखल कर कम्पनियां लगा रहा है।

धन्यवाद ज्ञापन सहायक प्राध्यापक, भूगोल विभाग, मारवाड़ी महाविद्यालय के डा संजय कुमार द्वारा किया गया। वेबीनार का संचालन एवं संयोजन मारवाड़ी कॉलेज की समाजशास्त्र विभागाध्यक्षा डा सुनीता कुमारी ने किया, जबकि तकनीकी संयोजन ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के संस्कृत शोधार्थी बाल कृष्ण कुमार सिंह ने किया।