मिथिला क्षेत्र से विशेष रिपोर्ट

#MNN24X7 दरभंगा, मिथिला की धरती अपने लोक पर्वों, परंपराओं और आस्था के रंगों से सदा सराबोर रही है। इन्हीं में से एक है सामा-चकवा पर्व, जिसे यहाँ की महिलाएँ पूरे स्नेह, समर्पण और प्रेमभाव से मनाती हैं। यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था से जुड़ा है, बल्कि भाई-बहन के स्नेह और सामाजिक एकता का प्रतीक भी है।


पर्व की कथा और महत्त्व
लोकमान्यता के अनुसार, यह पर्व कृष्ण की बहन सामा और उनके भाई चकवा (चक्रवाक पक्षी) की कथा पर आधारित है। कहा जाता है कि सामा ने कुछ भूलवश भगवान कृष्ण का अपमान कर दिया था, जिसके दंडस्वरूप उन्हें पक्षी रूप में पृथ्वी पर आना पड़ा। भाई चकवा भी उनके साथ धरती पर आए। इसी मिलन और विरह की कथा को स्मरण करते हुए महिलाएँ सामा-चकवा का पर्व मनाती हैं।

कैसे मनाया जाता है यह पर्व
कार्तिक मास की पूर्णिमा से शुरू होकर यह पर्व छठ पर्व के बाद तक चलता है। गाँव-गाँव की महिलाएँ और बालिकाएँ मिट्टी से सामा और चकवा की मूर्तियाँ बनाती हैं, जिन्हें साज-सज्जा कर टोकरी में रखती हैं। शाम के समय सभी महिलाएँ गीत गाती हुईं, सामा-चकवा की पूजा करती हैं।
सामा के गीत मिथिला की लोक-संस्कृति की आत्मा हैं—
“सामा-चकवा खेलन आइल, बगिया में बइठल भाई…”
ऐसे गीत पूरे वातावरण को स्नेह और भक्ति से भर देते हैं।

सांस्कृतिक और सामाजिक संदेश
सामा-चकवा पर्व समाज में भाई-बहन के रिश्ते की पवित्रता, स्त्री शक्ति की गरिमा और लोक एकता का संदेश देता है। यह पर्व ग्रामीण जीवन की सामूहिकता, मिट्टी की खुशबू और परंपरा की सुंदरता को जीवंत करता है।

आज भी जीवित है यह परंपरा
आधुनिकता के इस युग में भी मिथिला के गाँवों में सामा-चकवा का उत्सव वैसी ही श्रद्धा से मनाया जाता है। शहरों में बसे मिथिलवासी भी अपने घरों में इस परंपरा को निभाते हैं।

सच कहा जाए तो —
सामा-चकवा केवल एक पर्व नहीं, बल्कि मिथिला की आत्मा, संस्कृति और प्रेम की जीवंत अभिव्यक्ति है।