#MNN24X7 कथा प्रारंभ
मिथिला की धरती पर
रिश्ते केवल रक्त से नहीं,
संस्कार और करुणा से बनते हैं।
यहाँ प्रेम चुपचाप जन्म लेता है—
किसी अनकहे उपकार की तरह—
और समय के साथ विश्वास का
वटवृक्ष बन जाता है।
ऐसी ही एक कथा है
शारदा ‘शारू’ और माधव ‘मुन्ना’ की—
जो संयोग से शुरू हुई,
समाज की आँच में तपकर पकी
और आज भी
नई पीढ़ी के लिए
मिसाल है।

साल था 1991
मधुबनी से सटे
एक कस्बे की
कच्ची सड़क पर एक
दुर्घटना घटी।
दसवीं में पढ़ने वाला
माधव झा साइकिल से गिर पड़ा।
उसी रास्ते से गुजर रहे
शारदा के पिता—पंडित
हरिनारायण मिश्र—ने
उसे सहारा दिया,
पानी पिलाया और
घर तक छोड़ आए।
यह कोई बड़ा उपकार नहीं था,
पर मिथिला की मिट्टी में
ऐसे ही छोटे उपकार
रिश्तों का बीज बन जाते हैं।

धन्यवाद कहने माधव जब
मिश्रजी के आँगन पहुँचा,
तो देखा—एक दुबली-सी लड़की,
खुले बाल, हाथ में रैकेट,
बैडमिंटन खेलती हुई।
वही क्षण—जहाँ शब्द थम जाते हैं
और किस्मत बोल उठती है।

शारदा उसी वर्ष
जनक अकादमी में पढ़ती थी।
माधव ने अगले सत्र में—
पढ़ाई के बहाने—
उसी स्कूल में नाम लिखवा लिया।
एक साल तक
दोनों के बीच
कोई संवाद नहीं हुआ।
जैसे प्रेम, पहले मौन रहता है—
फिर बोलता है।

एक दिन शारदा का
रूमाल गिर पड़ा।
माधव ने उसे उठाया
और उस पर
सादगी से लिख दिया—
“I Love You”
नीचे—हाँ / नहीं।

शारदा पढ़ाई में तेज थी,
मन में उतनी ही गंभीर।
उसने उत्तर एक महीने तक
रोक लिया। वह जानती थी—
जल्दबाज़ी से रिश्ते नहीं टिकते।

फिर आया बसंत पंचमी।
स्कूल की सैर कमला उद्यान तक थी।
पीली धूप, सरसों-सी खुशबू
और छात्रों की चहल-पहल।
माधव ने साहस जुटाया,
शारदा का हाथ थामा
और उत्तर माँगा।
शारदा कुछ न बोली—
पर उस मौन में स्वीकृति थी।
यहीं से प्रेम ने विश्वास का रूप लिया।
गुलाब, हाथ से लिखे पत्र,
छुट्टी के बाद की राहों पर हुई बातचीत—सब कुछ उतना ही सरल, जितना सच्चा।

समय आगे बढ़ा।
दसवीं के बाद संवाद खुला,
समझ गहरी हुई।
पर समाज की दीवारें ऊँची थीं—
गरीबों के प्रेम का बोझ
हल्का नहीं होता।
माधव के परिवार को
बात पहले से मालूम थी;
उन्होंने साथ दिया।
शारदा के घर में
विरोध हुआ—पर
कहते हैं ना,
“जहाँ संवाद है,
वहाँ समाधान है।”
समझदारी से,
धैर्य से—सब राज़ी हुए।

2 दिसंबर 1997 को
दरभंगा में विवाह हुआ।
बारात आई,
आँखों में आशंका भी थी
और आशा भी।
पर जैसे-जैसे फेरे पड़े,
शंकाएँ पिघलती चली गईं।
प्रेम ने समाज को नहीं तोड़ा—
समाज को जोड़ दिया।

आज, बत्तीस वर्ष बाद—
शारदा एक विद्यालय की
प्रधानाचार्या हैं;
माधव व्यवसाय में रमे हैं।
उनके बच्चे बड़े दफ्तरों में काम करते हैं,
पर घर की देहरी पर
वही संस्कार रख आते हैं।
दोनों परिवारों के बीच आना-
जाना वैसा ही है—
जैसा मिथिला में होना चाहिए।

शौक साधारण हैं—
लंबी यात्राएँ,
साथ घूमना।
शारदा खाने की शौकीन हैं;
माधव हर मोड़ पर साथ।
आध्यात्मिक जीवन में भी
दोनों एक हैं—शिवाभिषेक,
पूजा-पाठ, व्रत—सब साझा।
माधव मुस्कराकर कहते हैं,
“जिसे पहली बार देखा,
वही मेरी जीवनसाथी बनी।”
और शारदा कहती हैं,
“एक दिन भी दूर रहना
अच्छा नहीं लगता।”

सच्चा प्रेम अमीरी और
गरीबी नहीं देखता है,
न समय।
वह विश्वास की भाषा बोलता है।
और जब प्रेम में सम्मान जुड़ जाए,
तो वह कहानी बन जाती है—
मिथिला की मिट्टी में रची-बसी,
संवेदना से भरी।