कथा प्रारंभ
दरभंगा शहर के लहेरियासराय मोहल्ले में
एक छोटा-सा मकान था।
मकान पुराना था,
पर उस घर में रहने वाली
माँ का धैर्य उससे भी पुराना।
माँ का नाम था सरस्वती देवी
और बेटे का नाम हरिनारायण।
हरिनारायण आज के ज़माने का
लड़का था— मोबाइल उसकी जेब में नहीं,
उसके मन में रखता था।
रहता तो वह घर में ही था मगर
घर में रहते हुए भी
उसका मन घर में नहीं लगता।
सुबह उठते ही उसके हाथों में मोबाइल,
रात को सोने से पहले तक,
और बीच में माँ की आवाज़—
जो अक्सर उसके कानों के
नेटवर्क से बाहर ही रहती थी।
मां जब भी आवाज लगाती
“हरि, खाना ठंडा हो रहा है बेटा।”
उसका एक ही जबाब होता
“अभी आया, अम्मा…”
और वह ‘अभी’ कभी नहीं आता था।
हरिनारायण को आनलाईन
प्रेम हो गया था—एक
अनजान मैसेज करने वाली से
जिसे वह जानता भी नहीं था।
मगर आज के दोस्त शायद
उसे किसी ने प्रेम का
नशा चढ़ा दिया था।
लड़की का नाम था रोमा।
प्रोफाइल में बड़े-बड़े सपने,
और बातें तो उससे भी बड़ी।
रोमा उससे कहती— “आप जैसे
सच्चे लोग बहुत कम ही
होते हैं इस दुनिया में।”
हरिनारायण की आँखें भर आतीं।
दिल के मोर पंख फैलाकर नाचने लगते।
उसे लगता—शायद किसी ने
उसे पहली बार
पूरी तरह से समझ लिया है।
अब उसे यह भी याद
नहीं रहता कि उसकी माँ भी
हर शाम दरवाज़े की ओर
देखती रहती है— आश,
विश्वास और उम्मीद से।
एक दिन घर के काम करते हुए
माँ गिर पड़ी। घुटनों में
जान नहीं बची थी।
सो चोट गंभीर था।
माँ ने दर्द में बेटे को पुकारा— “हरि…”
पर बेटा ऑनलाइन था।
जैसे तैसे बिस्तर पर पहुंची,
डाक्टर को बुलाना पड़ा।
डॉक्टर ने कहा— “इन्हें दवा कम,
अपनों की ज़रूरत ज़्यादा है।”
हरिनारायण ने सिर तो
समझदारों की तरह हिलाया,
पर उसकी उँगलियाँ अभी भी
मोबाइल स्क्रीन पर चलती रहीं।
कुछ हफ्तों बाद प्लेसमेंट इंटरव्यू था।
उसके पास डिग्री तो थी,
मगर इस समय उसका दिल
और दिमाग उसके पास नहीं था।
उस रात भी बिना सोये चैट चली।
सुबह इंटरव्यू गया।
सवालों की तैयारी सही तरीके से
नहीं हो पायी थी।
फाइल अधूरी थी।
लेकिन मोबाइल में
400 स्क्रीनशॉट थे —
रोमा की चैट के।
इंटरव्यू में सवाल आया—
“Where do you see yourself in 5 years?”
हरिनारायण चुप था।
क्योंकि उसने कभी
भविष्य नहीं,
केवल नोटिफिकेशन सोचा था।
इसलिए
रिजेक्शन मिला।
जहाँ जीतना था।
वहीं से हारकर लौटा।
उसी रात
रोमा का आख़िरी मैसेज आया—
> “Sorry…
I found someone better.
You were sweet though.”
बस।
न कोई झगड़ा।
न कोई सफ़ाई।
कॉल किया —
नंबर अब नाट रिचेबल बता रहा था।
—
अगली सुबह
हरिनारायण
दरभंगा इंजीनियरिंग कॉलेज की
छत पर खड़ा था।
नीचे ज़िंदगी चल रही थी।
ऊपर उसका दिमाग
चीख रहा था।
उसने स्टेटस लिखा—
> “ऑनलाइन प्यार
ऑफलाइन इंसान को
धीरे-धीरे मार देता है।”
लेकिन तभी
एक नोटिफिकेशन आया।
मां का मैसेज—
“बेटा, घर आ जा।
हम साथ बैठकर सब ठीक कर लेंगे।”
हरिनारायण रो पड़ा।
पहली बार
किसी नोटिफिकेशन ने
उसे बचा लिया।
—
कुछ दिन बाद
अचानक उसने रोमा की प्रोफाइल
फिर ध्यान से देखी।
बिना प्यार के चश्मे के।
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Bio — Spreading Love & Positivity
हर पोस्ट के नीचे
हज़ारों लड़कों के
टूटे दिलों की कतार।
तभी उसे समझ आया—
वो प्यार नहीं था।
वो एक बाज़ार थी।
और वो खुद भी— एक ग्राहक
बन गया था।
—
और उसी पल
उसके अंदर
कुछ ज़िंदा हुआ।
हरिनारायण देर तक मोबाइल
को निहारता रहा।
जैसे उसका दिमाग
किसी शून्य में चला गया हो।
फिर उसने मोबाइल को
आराम से
ज़मीन पर रख दिया।
फिर ठंढी सांस ली।
उस रात पहली बार
वह माँ के पास
जाकर बैठा।
चुपचाप।
माँ सो रही थी।
चेहरे पर झुर्रियाँ थीं,
पर आँखों में वही
पुरानी ममता।
मां की ममता
याद आते ही
हरिनारायण रो पड़ा।
उसे लगा— जिसे वह रोज़
‘Seen’ पर छोड़ देता था,
वही उसे आज भी
दिल से देख रही है।
अगले ही पल उसने
अपना मोबाइल
स्विच ऑफ कर दिया।
—
अब जब भी
हरिनारायण कॉलेज में जूनियर्स से
मिलता है तो बस
इतना ही कहता है—
“प्यार करो…
लेकिन स्क्रीन से नहीं।
मिथिला की मिट्टी से,
अपनी मां से,
अपने सपनों से।”
अब उसकी दिनचर्या सामान्य थी।
माँ को दवा अब
समय पर मिलने लगा।
अब वह रात को उसके पास
बैठकर पुरानी बातें भी सुनने लगा।
एक दिन माँ बोली—
“नजर ना लगे मेरे बेटे को
अब खुश लगता है।”
हरिनारायण ने कहा— “अम्मा,
अब समझ में आया कि
असली प्यार Wi-Fi से
नहीं चलता।”
माँ ने सहमति में
सिर सहलाया।
आज उसके हाथों में
न तो स्टेटस था,
न लाइक—
पर वह स्पर्श था जो
पूरी दुनिया से भारी था।
और उसी दिन हरिनारायण
सच में ऑनलाइन हुआ—
ज़िंदगी के साथ।
जो पास बैठा है,
अगर उसे खो दिया तो
ऑनलाइन दुनिया कभी
सहारा नहीं देती।
