आज दिनांक- 04/03/2022 को विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा में अमरकथा शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की 101वीं जयंती के अवसर पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

इस अवसर पर प्रो० राजेन्द्र साह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि रेणु जी सामाजिक चेतना के अग्रदूत थे| रेणुजी पर बात कहाँ से शुरू की जाए यह भी चुनौतीपूर्ण कार्य है।उनका समग्र साहित्य सामाजिक जीवन का ‘पोस्टमार्टम रिपोर्ट’ है| वे कथा- साहित्य के सागर हैं। आंचलिक साहित्य के प्रणेता रेणु को आंचलिक कहने से उनका महत्त्व घटता नहीं, अपितु यही ‘आंचलिकता’ उनके महत्त्व का कारण है। उन्होंने कहा कि आज के चश्मे से किसी भी साहित्यकार का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिए। दलितों के जीवन- संघर्ष को वही व्यक्त कर सकता है जिसने उन संघर्षों को भोगा है। रेणु निश्चय ही दलित वर्ग से नहीं आते थे, इसीलिए कहीं – न- कहीं वे दलितों की पीड़ा को व्यक्त करने में उस तरह से सफल नहीं हो सके हैं जैसे आज के दलित साहित्यकार हो रहे हैं। ‘रसप्रिया’ की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि वर्ण- भेद की भावना का बहुत ही सूक्ष्म संवेदनात्मक चित्रण इस कहानी में दिखाई पड़ता है। ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’ ‘संवदिया’, ‘पंचलाइट’, ‘आदिम रात्रि की महक’, ‘ना जाने केहि वेष में’,’तॅबे एकला चलो रे’ आदि रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया।

विभाग के सह प्राचार्य डॉ० सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि आज जयंती और पुण्यतिथि मनाना फैशन हो गया है। जो अम्बेडकर, फूले, रेणु आदि की विचारधारा को नहीं मानते हैं वह भी उन्हें याद करते हैं। उन्होंने आगे कहा कि रेणु न केवल कथाकार हैं बल्कि वे कवि भी हैं। यह दुखद है कि उनकी कविताओं पर बात नहीं होती। रेणु की सम्पूर्ण रचनाओं में आम आवाम की ज़िंदगी का संघर्ष दिखाई पड़ता है। मुक्ति का स्वप्न उनकी रचनाओं का केंद्रीय तत्त्व है। उनकी आंचलिकता राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता के केंद्र में है। उन्होंने आगे कहा कि रेणु से कुछ जगहों पर चूक भी हुई, मसलन दलितों और स्त्रियों के पक्ष में वे उस तरह से खड़े नहीं हो सके जैसे वे हो सकते थे। लेकिन उनके साहित्य की एक सीमा भी थी,इसका ध्यान रखना चाहिए। अपनी वाणी को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि रेणु और नागार्जुन की रचनाओं के सभी पात्र वास्तविक हैं।

डॉ० आनन्द प्रकाश गुप्ता ने रेणु के जीवन से जुड़े कई अनछुए पहलुओं को रेखांकित करते हुए उनकी कृतियों पर विचार किया।
वरीय शोधप्रज्ञ कृष्णा अनुराग ने कहा कि निरन्तर हो रही इन संगोष्ठियों से हम समृद्ध हो रहे हैं। रेणु की रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि उन्हें किसी एक खांचे में फिट नहीं किया जा सकता है। उनका अपना सौंदर्यशास्त्र है। ‘वर्ण’ और ‘वर्ग’ दोनों पर उन्होंने मुखर होकर कलम चलाई है।
इस अवसर पर कनीय शोधप्रज्ञ समीर कुमार ने कहा कि उन्होंने उस दौर में अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर चर्चा की है। ‘नेपाली क्रांति’ जैसे गम्भीर विषय पर उन्होंने लिखा है। उन्होंने आगे कहा कि निश्चित रूप से उनकी कुछ रचनाओं में आंचलिकता है लेकिन उन्हें सिर्फ इसी फ्रेम में ढालना उचित नहीं है। अपने वक्तव्य में उन्होंने रेणु साहित्य पर कई प्रश्न खड़े किए। उन्होंने कहा कि वस्तुगत निष्कर्षों को रेणुजी ने अपनी रचनाओं में बदल दिया है। दलित स्त्रियों के प्रति उनके विचार को उन्होंने आपत्तिजनक बताया।
वरीय शोधप्रज्ञ अभिषेक कुमार सिन्हा ने इस अवसर पर कहा कि उनकी रचनाओं में सामाजिक विषमताओं का यथार्थ चित्रण मिलता है।
वरीय शोधप्रज्ञ धर्मेन्द्र दास ने भी रेणुजी के समग्र जीवन और कृतित्व पर प्रकाश डाला।
कनीय शोध प्रज्ञा शिखा सिन्हा ने कहा कि ‘मैला आँचल’ से वे साहित्यिक जगत में प्रसिद्ध हुए। उनकी रचनाओं में अपनी माटी की खुशबू को महसूस किया जा सकता है।
कनीय शोधप्रज्ञ मंजू कुमार सोरेन ने कहा कि रेणुजी ने पूर्णिया क्षेत्र के उन संथालों के भूमि संघर्ष को साहित्य में वह स्थान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे।
पुष्पा कुमारी, सुशील मंडल, अमितेश कुमार आदि ने भी इस अवसर पर विचार प्रकट किए।