दरभंगा। दिनांक 08-04-2022 को महापंडित राहुल सांकृत्यायन की 129वीं जयंती के अवसर पर विश्विद्यालय हिंदी विभाग एवं विश्विद्यालय दर्शनशास्त्र विभाग के संयुक्त तत्त्वावधान में वनस्पति विभाग सभागार में ‘राहुल सांकृत्यायन : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो०रमण झा की अध्यक्षता में किया गया। संगोष्ठी की विधिवत् शुरुआत दीप- प्रज्वलन और महापंडित राहुल सांकृत्यायन के तैल चित्र पर माल्यार्पण-पुष्पांजलि के साथ हुई।
अपने उद्घाटन- उद्बोधन में माननीया प्रति कुलपति महोदया प्रो०डॉली सिन्हा ने कहा कि यह पहला अवसर है जब ऐसे किसी कार्यक्रम में पूरा हॉल खचाखच भरा है। उन्होंने कहा विज्ञान, धर्म और साहित्य सब में एक प्रकार का समन्वय होता है। राहुल पहले एक ब्राह्मण के रूप में साधुओं की टोली में रहते थे और उस दौर में भी वे वैज्ञानिक ढंग से तुलना करते थे कि दक्षिण भारत और उत्तर भारत के लोगों में क्या अंतर है। वे जब श्रीलंका गए तब उन्होंने डार्विन के विकासवाद को मानना शुरू किया और आखिर में जब वे रूस गए तब उन्होंने मार्क्स को मानना शुरू किया। विशिष्ट उपाधियों से विभूषित राहुलजी की विशेषता यह थी कि उन्होंने पुस्तकें बिल्कुल सहज भाषा में लिखी हैं। उनकी शब्द – योजना पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि वे सीमित शब्दों में ही किसी भी स्थिति का यथार्थ वर्णन करने में सक्षम थे। डार्विन से लेकर मार्क्स तक के विज्ञान और दर्शन को अपने जीवन का मूल मंत्र बनानेवाले राहुल सांकृत्यायन को नमन करते हुए उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया।
विशिष्ट अतिथि कुलसचिव प्रो०मुश्ताक अहमद ने इस अवसर पर कहा कि राहुल जी जब केदार पांडे थे तब उनकी पढ़ाई मदरसे से फारसी भाषा में हुई थी। उन्होंने कहा कि उन्नीसवीं सदी भारत के लिए एक चिंगारी वाली सदी थी। 1857ई० की क्रांति ने भारत का सम्पूर्ण चिंतन ही बदल दिया। राहुल सांकृत्यायन ‘ज़माने की हवा’ थे। राहुल के अंदर जो इंकलाब है,जो क्रांति है वह यात्राओं के माध्यम से शोला बन कर बाहर निकलती है। राहुल जब दूसरे देशों की यात्राओं में होते थे तो वे भारत की संस्कृति और उस देश की संस्कृति का तुलनात्मक मूल्यांकन करते थे। अरबी, फ़ारसी को उन्होंने हिंदी और संस्कृत में कुछ इस तरह लपेटा की उनकी भाषा और उनका साहित्य चाशनी – सा मीठा हो गया है। साहित्यकारों की जयन्तियों और पुण्यतिथियों पर लगातार कार्यक्रम आयोजित करनेवाले हिंदी विभाग की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हुए उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया।
संगोष्ठी में स्वागताध्यक्ष प्रो० राजेन्द्र साह ने अपने स्वागत उद्बोधन में कहा कि राहुल सांकृत्यायन वास्तव में महापंडित थे। उन्हें महापंडित की उपाधि इसलिए नहीं दी गयी क्योंकि वे छत्तीस भाषाओं के जानकार थे बल्कि उनमें वह प्रेम का तत्त्व था जिसकी वजह से वे महापंडित कहलाए। उनके समग्र रचनात्मक कर्म के केन्द्र में मानवीय चेतना, मानवीय मूल्य, मानवीय संवेदना तथा मानवतावादी दृष्टि है| वे मनुष्यत्व को अंगीकार करनेवाले महान व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने पचास हजार पृष्ठों के साहित्य का सृजन किया। उनके साहित्य में समाज का सबसे अंतिम व्यक्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। प्रो० साह ने सभी आगत अतिथियों का मुक्त कंठ से स्वागत किया। माननीया प्रतिकुलपति प्रो०डॉली सिन्हा, कुलसचिव प्रो०मुश्ताक अहमद, मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो०रमन झा, दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो०रुद्रकांत अमर एवं प्रो०चन्द्रभानु प्रसाद सिंह,प्रो०के० के० साहु,प्रो० रमेश झा,प्रो० अशोक कुमार मेहता प्रो०नारायण झा तथा वनस्पति विज्ञान विभागाध्यक्षा प्रो० शहनाज़ जमील एवं डॉ० सुरेन्द्र प्रसाद सुमन सहित अन्य आगत अतिथियों का स्वागत करते हुए उन्होंने उनकी विशेषताओं और कार्य – कुशलताओं पर प्रकाश डाला।
इस अवसर पर प्रो०चन्द्रभानु प्रसाद
सिंह ने कहा कि हमें धन्यवाद देना चाहिए प्रति कुलपति महोदया और कुलसचिव महोदय का जिन्होंने राहुल सांकृत्यायन की जयंती को विश्वविद्यालय स्तर पर समारोह के रूप में मनाने की परंपरा शुरू की। राहुल जी सातवीं में पढ़ते समय ही घर छोड़ कर भाग निकले। तमाम तरह की यात्राओं को पूरा करते हुए राहुल सांकृत्यायन ने अमवारी के किसान आंदोलन में भाग लिया। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि सैंतीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल ने अपना लेखन कार्य हिंदी में किया। राहुल सांकृत्यायन का जन्म सनातनी ब्राह्मण परिवार में हुआ, श्रीलंका जा कर वे बौद्ध हुए और फिर रूस की यात्रा के बाद उन्होंने मार्क्सवाद अपना लिया। इस दृष्टि से देखा जाय तो उनके सम्पूर्ण जीवन में वैचारिक संघर्ष देखा जा सकता है। प्रो०सिंह ने कहा उनके लेखन के केंद्र में इतिहास है। चाहे वह कहानियाँ हों, उपन्यासों हों या यात्रा संस्मरण हों। उनके साहित्य की प्रारंभिक अवस्था में ब्रिटिश सम्राज्यवाद और भारतीय सामंतवाद का क्रांतिकारी विरोध दिखाई पड़ता है। राहुल सांकृत्यायन से पहले हिंदी साहित्यकार दकनी उर्दू नहीं जानते थे| इस दृष्टि से यह उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। शब्द और कर्म की एकता के महान शिल्पी राहुल सांकृत्यायन को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो० रमण झा ने कहा कि 1893ई० में जन्मे महापंडित राहुल सांकृत्यायन को सत्तर वर्ष की अच्छी आयु मिली थी। अपने जीवनकाल में उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को देखने का सपना देखा था। कहीं पैदल, कहीं खच्चर और कहीं रेलगाड़ी से उन्होंने यात्रा की थी। उन्होंने अपनी हज़ारों मील की यात्रा में जो अनुभव प्राप्त किये उसे ही लिखा है। समय का सदुपयोग करना उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी। अपनी वाणी को विराम देते हुए प्रो०झा ने सभागार में उपस्थित सभी छात्रों को राहुल जी के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने को कहा।
स्नेहा कुमारी, अन्नू कुमारी, पुष्पा कुमारी और शिखा सिन्हा ने इस अवसर पर स्वागत गायन से आगत अतिथियों को भाव विभोर कर दिया।संगोष्ठी में भाषण प्रतियोगिता के विजेताओं को प्रमाण पत्र और पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
धन्यवाद ज्ञापन दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो०रुद्रकांत अमर ने किया। उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि आज सभी पक्षों पर चर्चा हुई पर एक बात छूट गयी। उन्होंने बताया कि राहुल सांकृत्यायन ने ही सर्वप्रथम कुरआन का संस्कृत में ‘कुरान सार’ नाम से अनुवाद किया था। प्रो०अमर ने कहा कि बौद्ध दर्शन तीन पिटकों पर आधारित है और राहुल सांकृत्यायन को त्रिपिटकाचार्य कहा जाता है। उन्होंने सभी शिक्षकों, विभागाध्यक्षों और संगोष्ठी में शामिल सभी छात्र-छात्राओं को हृदय से धन्यवाद दिया। मंच संचालन हिंदी विभाग के सह आचार्य डॉ०आनन्द प्रकाश गुप्ता ने किया। मौके पर शोधप्रज्ञ कृष्णा अनुराग, अभिषेक कुमार सिन्हा, धर्मेन्द्र दास, समीर कुमार, मंजू सोरेन, शिखा सिन्हा, पुष्पा कुमारी समेत बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय के सभी विभागों के विद्यार्थी उपस्थित रहे।