#MNN@24X7 दरभंगा। 7 नवंबर, सामाजिक सरोकारों से लैस,शब्द और कर्म के बड़े साधक, जन संस्कृति मंच के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक प्रो. मैनेजर पांडेय के निधन से पूरे साहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गयी।
विश्वविद्यालय हिंदी विभाग में विभागाध्यक्ष प्रो० राजेन्द्र साह की अध्यक्षता में श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई।
श्रद्धांजलि सभा में विश्वविद्यालय हिंदी विभाग की ओर से संवेदना व्यक्त करते हुए विभागाध्यक्ष प्रो० राजेन्द्र साह ने कहा कि प्रो० मैनेजर पाण्डेय का जाना हमारे साहित्य और समाज के लिए अपूरणीय क्षति है। हिंदी आलोचना के क्षेत्र में उनकी देन अविस्मरणीय है।वे सर्वाधिक प्रबुद्ध, जागरूक तथा प्रतिबद्ध आलोचक थे|उनकी सबसे बड़ी विशिष्टता थी कि उन्होंने न केवल साहित्यकारों को बल्कि समीक्षकों-आलोचकों को भी नई दृष्टि दी।
जनसामान्य तथा हाशिए के अवाम की आवाज़ों को अपने रचना-कर्म का केंद्र बनाकर उन्होंने बहुत बड़ी परिवर्तनकारी भूमिका निभायी। वस्तुत: साहित्य दृष्टि तभी सार्थक है जब उसका जुड़ाव जनसामान्य से हो। वे हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष थे। पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने रुँधे गले से अपने आत्मीय गुरु मैनेजर पांडेय को याद किया।
इस अवसर पर डॉ. मैनेजर पांडेय के जीवन और रचनाकर्म पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि हिंदी की मार्क्सवादी आलोचना की जो तीसरी क्रांतिकारी धारा है, वे उसके सिरमौर आलोचक हैं। उनका चिंतन दोहरे स्तर पर संघर्ष करता है : एक तो बुर्जुआ चिंतन, दूसरा मार्क्सवाद का संशोधनवादी चिंतन। उनका आलोचना कर्म एक बड़ा आत्मसंघर्ष करता है। उन्होंने साहित्य के मूल्यांकन के नए प्रतिमान दिए। साहित्य की इतिहास दृष्टि को समृद्ध करने में उनका मौलिक योगदान है। दरअसल साहित्य का इतिहास संस्कृति का, उसकी गतिशीलता का इतिहास है। उन्होंने साहित्य के समाजशास्त्र पर लेखन कर साहित्य की क्रांतिकारी भूमिका को रेखांकित किया।
उन्होंने आगे कहा कि सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की बेचैनी उनमें थी। वे जनता के बुद्धिजीवी थे। साहित्य जगत में उनका ऐतिहासिक महत्त्व है।
मौके पर वरीय प्राध्यापक डॉ. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि यह साहित्य जगत् सहित तमाम प्रगतिशील लोगों के लिए शोक का दिन है। मैनेजर पांडेय का जाना हिंदी आलोचना के एक बड़े जहाज का जाना है। शब्द और कर्म के बड़े साधक जनपक्षधरता को प्रमुखता से स्थापित करनेवाले आलोचक रहे हैं मैनेजर जी।
मार्क्सवादी आलोचना की तीसरी धारा के सिरमौर आलोचक रहे वो। ’90 के दशक में मुखर होनेवाली दमित अस्मिताओं के विमर्श पर चौतरफा हमले हो रहे थे, उस समय मैनेजर पांडेय हाशिए की आवाज़ के पक्ष में बुलंदी से खड़े रहे। दुविधा की भाषा को दुत्कार कर जनपक्षधर स्वरों को बुलंद करते रहना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
सहायक प्राध्यापिका डॉ. मंजरी खरे ने शोक प्रकट करते हुए कहा कि उनकी आलोचनात्मक कृतियों से न केवल विषय-वस्तु की समझ बढ़ती थी बल्कि किसी भी विषय को किस प्रकार देखें, इसकी सही समझ बनती है। उनसे हिंदी आलोचना सुशोभित होती रहेगी।
अंत में दो मिनट का मौन धारण किया गया।
वरीय शोधप्रज्ञ अभिषेक कुमार, सरिता कुमारी, सियाराम मुखिया, समीर आदि के साथ अन्य छात्र-छात्राओं की उपस्थिति रही।