मारवाड़ी कॉलेज के समाजशास्त्र विभाग द्वारा ‘ब्राह्मी लिपि के उद्वाचन में जेम्स प्रिंसेप का योगदान’ विषयक राष्ट्रीय वेबीनार आयोजित।

1837 में ब्राह्मी तथा 1838 में खरोष्ठी लिपि को पूर्णत: पढ़ने वाले जेम्स ने ही वाराणसी का करवाया था आधुनिकीकरण- डा विकास।

ब्राह्मी लिपि भारतीय लिपियों की जननी, जिसकी खोज ने भारत ही नहीं, बल्कि विश्व इतिहास को दी नई दिशा- दिशा- डा घनश्याम।

ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपि पर दरभंगा में शीघ्र आयोजित होगी व्यापक कार्यशाला, ताकि इन्हें पढ़ना हो सके आसान- डा चौरसिया।

ब्राह्मी लिपि के उद्वाचन से भारत के महान सम्राट अशोक के लोक कल्याणकारी कार्यों से हम हुए अवगत- डा शारदा।

मारवाड़ी कॉलेज, दरभंगा के समाजशास्त्र विभाग द्वारा जेम्स प्रिंसेप की जयंती के सुअवसर पर “ब्राह्मी लिपि के उद्वाचन में जेम्स प्रिंसेप का योगदान” विषयक ऑनलाइन एक दिवसीय राष्ट्रीय वेबीनार का आयोजन किया गया, जिसका उद्घाटन कॉलेज के प्रधानाचार्य डॉ दिलीप कुमार द्वारा किया गया। उन्होंने कार्यक्रम आयोजन हेतु आयोजकों को बधाई एवं प्रतिभागियों को शुभकामनाएं दी।

कार्यक्रम की अध्यक्षता ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग के एसोसिएट प्राध्यापक डॉ आर एन चौरसिया ने की। उन्होंने कहा कि जेम्स प्रिंसेप केवल भाषाओं और लिपियों से ही प्रेम नहीं करते थे, अपितु उनका भारत के प्रति जो स्नेह था वह अत्यंत प्रशंसनीय है। उन्होंने वाराणसी के सौंदर्य को अपनी कूची से कैनवास पर उतार दिया, जिसे ‘इलस्ट्रेट्ड बनारस’ नामक उनकी पुस्तक में देखा जा सकता है।

उन्होंने अपनी मां को लिखे पत्रों में भारत देश की मुक्त कंठ से प्रशांसा एवं स्तुति की है। शीघ्र ही दरभंगा मे ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपि पर एक व्यापक कार्यशाला आयोजित की जाएगी, जहां ब्राह्मी लिपि को पढ़ने और लिखने को लेकर मिथिला में विद्वान एकत्रित होंगे। डा चौरसिया ने कहा कि जेंस प्रिंसेप द्वारा ब्राह्मी लिपि के पढ़ने से भारत के इतिहास को पुनः सृजित होने का अवसर प्राप्त हुआ तथा भारतीयों के पास गर्व करने को सिकंदर से भी महान शासक अशोक काले बादलों के बीच से सूर्य सदृश्य अपने शिलालेख द्वारा प्रकट हुए।

जेएमडीपीएल महिला कॉलेज, मधुबनी के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ घनश्याम महतो ने मुख्य अतिथि के रूप में वक्तव्य देते हुए कहा कि ब्राह्मी लिपि भारतीय लिपियों की माँ है। ऐसी लिपि को जेम्स प्रिंसेप के द्वारा पढ़ा जाना भारतीय इतिहास की अद्वितीय घटनाओं में से एक है। प्रिंसेप ने न केवल भारतीय इतिहास को नई दिशा दी, अपितु विश्व इतिहास को नए सिरे से देखने के लिए विवश किया, क्योंकि ब्राह्मी के उद्वाचन के पश्चात सम्राट अशोक के शिलालेखों को पढ़ा गया और उनके लोक कल्याणकारी कार्यों को जाना गया।

विशिष्ट अतिथि के रूप में दौलत राम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की प्राध्यापिका डॉ शारदा गौतम ने बताया कि जेम्स प्रिंसेप के द्वारा भारतीय विद्याओं के उद्धार के लिए किए गए कार्य प्रशंसनीय हैं। लेखन कला के संदर्भों पर विमर्श करते हुए उन्होंने सम्राट अशोक के विभिन्न शिलालेखाें में उल्लिखित कथ्य पर विस्तार से चर्चा की।

उन्होंने कहा कि प्रिंसेप से पूर्व शिलालेख केवल चर्चा का विषय मात्र थे, किंतु उनके उद्वाचन के बाद ही रहस्य से पर्दा उठा और भारत से महान शासक सम्राट अशोक सूर्य की भांति बाहर निकलकर आए। उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि संस्कृत, इतिहास के विद्यार्थियों को लिपियां सीखनी चाहिए, ताकि इस विरासत को अनवरत आगे बढ़ाया जा सके।

वेबीनार के मुख्य वक्ता मारवाड़ी महाविद्यालय, दरभंगा के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ विकास सिंह ने विस्तार के साथ में जेम्स प्रिंसेप के जीवन एवं कार्य पर प्रकाश डालते हुए बताया कि जेम्स प्रिंसेप की जयंती 20 अगस्त को “धम्मलिपि महत्ता दिवस” के रूप में मनाया जाता है। उनका बचपन आर्थिक अभावों में गुज़रा। अपने माता – पिता की सातवीं संतान जेम्स की स्कूली शिक्षा भी ठीक से नहीं हुई थी।

उन्होंने वास्तुविद्या और टकसाल आदि का काम कौशल के तहत सीखा था। मात्र 18 वर्ष की आयु में जेम्स भारत आए और बनारस से लेकर कलकत्ता तक सर्वत्र अपनी बुद्धि से भारत को समृद्ध करते रहे। उन्होंने बनारस का आधुनिकीकरण किया। बनारस के न केवल व्यक्तियों की, अपितु पशु- पक्षियों तक की गणना करवायी, ड्रेनेज सिस्टम सुधारा, कर्मनाशा नदी पर पुल बनवाया, मन्दिरों- मस्जिदों का जीर्णोद्धार करवाया। कलकत्ता में टकसाल प्रभारी के साथ -साथ एशियाटिक सोसाइटी के सचिव और वहां से प्रकाशित जर्नल के संपादक रहते हुए, वे ब्राह्मी लिपि को पढ़ने में संलग्न हुए। “दानं” शब्द के माध्यम से 1837 में ब्राह्मी तथा 1838 में खरोष्ठी को पूर्णतः पढ़ने में जेम्स सफल हुए। उनके योगदान को ध्यान में रखते हुए कलकत्ता में जेम्स प्रिंसेप घाट का निर्माण करवाया गया। एक वनस्पति का नाम भी वैज्ञानिकों ने प्रिंसिपिया रखा।

वेबीनार में पुरातत्ववेत्ता डा सुशांत कुमार, उमा पांडे कॉलेज, पूसा से डा राजेश प्रसाद, डा मीरा कुमारी, डा एकता वर्मा, डा कीर्ति राज, डा त्रिदेव निराला, उत्तर प्रदेश से डा राकेश, राजस्थान से डा सत्य मुदिता, बंगाल से राजकुमार चक्रवर्ती, एम के कॉलेज से संस्कृत- प्राध्यापिका डा श्वेता शशि, बीआरबी कॉलेज से डा आर के चौधरी, राम नारायण पंडित, अशोक, अजय, सुशील, प्रशांत कुमार झा, डा शैलेश मिश्रा, योगाचार्य विकास गिरी, श्वेता झा, सूरज, सुधीर, रामबाबू, रवीन्द्र, संगीता, सतीशचन्द्र, सुशील, शैलेश मिश्रा, शालू सिंह, सोमनाथ दास, राजेश, राज गौतम, ओम प्रिया, प्रियदर्शी, नजमा हसन, मो अशरफ, विपिन दुबे, अतुल कुमार झा, दीप्ति कुमारी, धनंजय, डा राकेश, अंजलि नारायण, अजय राम, आनंद, आशीष रंजन, गिरधारी व रीतेश सहित 80 से शिक्षकों, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों ने ने भाग लिया।

कार्यक्रम में स्वागत वक्तव्य जी डी कॉलेज, बेगूसराय की संस्कृत- प्राध्यापिका डॉ मोना शर्मा ने तथा धन्यवाद ज्ञापन करते हुए जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज, नई दिल्ली के संस्कृत के प्राध्यापक डॉ राजेन्द्र कुमार ने जेम्स प्रिंसेप से पहले ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपि पढ़े जाने के प्रयासों का विस्तृत चर्चा करते हुए कहा कि इन लिपियों के खोज से लोगों ने पहली बार जाना कि तलवारों के स्थान पर धाम्म, शांति व अहिंसा को भी विदेश नीति का आधार किसी शासक द्वारा बनाया जा सकता है। राज्य की ओर से जनता पर शासन के अलावा एक शासक लोक कल्याणकारी कार्य भी कर सकता है। चिकित्सा, शिक्षा व विभिन्न सुविधाओं को जन सामान्य से लेकर पशु- पक्षियों के लिए भी नि:शुल्क कर सकता है। स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के संस्कृत पीएच डी शोधार्थी बाल कृष्ण कुमार सिंह ने वेबीनार का तकनीकी संयोजन किया। इस वेबीनार का संचालन और संयोजन मारवाड़ी महाविद्यालय की समाजशास्त्र विभागाध्यक्षा डॉ सुनीता कुमारी द्वारा किया गया।