#MNN@24X7 आज दिनांक 23.09.2022 को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती के अवसर पर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा में संगोष्ठी सह अंतर्विभागीय भाषण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया।
मुख्य वक्ता मानविकी संकाय के पूर्व अधिष्ठाता और हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो.प्रभाकर पाठक ने छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा कि युवाओं की गर्दन ऐसी होनी चाहिए कि वह भारत का भार उठा सके। उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘दिनकर’ के प्रति कोई साजिश नहीं कर सकता, वे किसी ‘वाद’ के कवि नहीं हैं। रश्मिरथी उद्वेग का काव्य है तो कुरुक्षेत्र आवेग का काव्य है। ‘राष्ट्रवाद’ शब्द पर आपत्ति जताते हुए उन्होंने कहा कि यह शब्द ही उचित नहीं है। राष्ट्रीयता कहीं बेहतर शब्द है।
उन्होंने कहा कि राष्ट्रीयता का पहला दौर हमारे यहाँ 1857ई० से शुरू होकर 1885ई० में खत्म होता है। फिर वहीं से दूसरा दौर शुरू होता है जो 1921ई० में खत्म होता है। 1921ई० में ही बालगंगाधर तिलक की मृत्यु हुई। मरणासन्न अवस्था में वे गाँधी से कहते हैं कि ‘आप देश को कहाँ ले जा रहे हैं?’ इस वाक्य की छाया ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में दिखाई पड़ती है। दिनकर का व्यक्तित्व सामासिक है जहाँ कहीं भी कोई अधूरापन नहीं दिखता।’हिमालय’ कविता को उन्होंने राष्ट्रीयता का चरम बिंदु बताया और कहा कि कालिदास के मेघदूत से दिनकर ने हिमालय को लिया है। ‘राष्ट्र’ के सभी वर्ण अग्निवर्ण हैं। जो अपनी हथेली पर आग ले कर चलते हैं वे ही सच्चे राष्ट्रवादी हैं।
दिनकर की साहित्यिक यात्रा में उनकी राष्ट्रीयता दो भागों में बॅटती दिखाई देती है। 1947ई० तक पहला भाग और उसके बाद राष्ट्रीयता का दूसरा भाग दिखाई पड़ता है। पहले भाग में जहाँ अंग्रेजों पर प्रहार दिखाई पड़ता है वहीं दूसरे भाग में देसी नेताओं को कोसते नजर आते हैं दिनकर। दिनकर की राष्ट्रीयता न्याय, निष्पक्षता, सहिष्णुता और समरसता को केंद्र में रखती है। दिनकर की राष्ट्रीयता यह है कि वे अपनी तमाम कविताओं में भारतीय जनमानस को ओजस्वी बनाने का प्रयास करते दिखाई देते हैं।
डॉ. पाठक ने आगे कहा कि जो लक्ष्य के लिए दौड़ नहीं सकता वह दिनकर की दृष्टि में जीवित नहीं है इसीलिए वे ऐसी रचनाएँ करते थे जो मनुष्य में प्राण वायु का संचार करती हों। अपनी वाणी को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि दिनकर की राष्ट्रीयता संकुचित नहीं है,अपितु उदार है।
इस अवसर पर अध्यक्षीय उद्बोधन सह धन्यवाद ज्ञापन के क्रम में प्रो.राजेन्द्र साह ने कहा कि राष्ट्रवाद का आज जो दौर चल रहा है वह राष्ट्रकवि दिनकर की राष्ट्रीय चेतना से काफी अलग है|आज राष्ट्रवाद की जिस तरह से नई व्याख्या हो रही है उसमें दिनकर की रचनाओं के स्वर को नये सिरे से समझने, मूल्यांकित करने तथा आत्मसात करने की जरूरत है|दिनकर की राष्ट्रीयता मानवीय मूल्यों से अनुप्राणित व्यापक आयाम लिए हुए है, जबकि आज धर्म, भाषा एवं संस्कृति आदि को नए ढंग से परिभाषित एवं विभाजित किया जा रहा है, जो देशहित में नहीं है। आज का सत्तापोषित राष्ट्रवाद छलावा है। दिनकर कहते हैं कि बापू का हत्यारा भी एक हिन्दू ही था। ऐसे हिंदूवाद का क्या अर्थ जो हिंसा पर उतारू हो जाये। वे मानवीय मूल्यों को स्थापित करनेवाले महाकवि हैं।
उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि किसी भी वर्ग या वर्ण पर अत्याचार अगर होता है तो वहाॅं राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद नहीं है। दिनकर की कविताऍं एकपक्षीय कभी नहीं रहीं,उनकी सोच हमेशा व्यापक रही है। साहित्य में जो उपेक्षित था दिनकर ने उन्हें केंद्र में लाने की कोशिश की, वस्तुतः यह भी राष्ट्रीयता का ही एक पक्ष है। दिनकर की रचनाओं में जहाँ ओजस्विता दिखाई पड़ती है वहीं भाषा के स्तर पर स्पष्टता परिलक्षित होती है। धन्यवाद ज्ञापन के क्रम में उन्होंने कहा कि प्रो. प्रभाकर पाठक उनके गुरु के समान हैं और विभाग के प्रति उनका बड़ा स्नेह रहा है।
मौके पर निर्णायक की भूमिका निभाने वाले अर्थशास्त्र के सहायक प्राचार्य डॉ० भंजन का भी आभार व्यक्त किया। अपने उद्बोधन के क्रम में प्रो० साह ने भाषण प्रतियोगिता के प्रतिभागियों को भाषण प्रतियोगिता में अभिव्यक्ति की शैली के विषय में बताया। मुख्य विषय से भटके प्रतियोगियों को उन्होंने भाषण कला के सम्बंध में भी जानकारी दी। भाषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान भारती झा, द्वितीय स्थान शालिनी राय और तृतीय स्थान श्यामनन्द झा को प्राप्त हुआ।
इस अवसर पर सह प्राचार्य डॉ. सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि आज के दिन हिंदी की दो महान विभूतियों का जन्म हुआ है। दिनकर के साथ शब्द और कर्म के सच्चे साधक मैनेजर पांडेय का भी आज जन्मदिवस है। उन्होंने कहा कि आज का राष्ट्रवाद और दिनकर की राष्ट्रीय चेतना में आसमान-ज़मीन का अंतर है। 1922ई० में मुसोलनी ने और जर्मनी के हिटलर ने इस राष्ट्रवाद की बात की थी और वहीं से यह राष्ट्रवाद भारत आया। उन्होंने आगे कहा कि यह साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद है जिसे आजकल साहित्य में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से सुशोभित किया जाता है।
उन्होंने कहा कि यह राष्ट्रवाद वस्तुतः हिन्दू राष्ट्रवाद है। दिनकर की पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ को उद्धरित करते हुए उन्होंने कहा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी इस राष्ट्रवाद से सहमत नहीं थे। उन्होंने साझी विरासत की संस्कृति को पुनर्जीवित करने का आह्वान करते हुए अपनी वाणी को विराम दिया।
अंग्रेजी विभाग की प्राचार्या और भाषण प्रतियोगिता की निर्णायक प्रो. पुनीता झा ने कहा कि प्रतियोगियों में सतत सीखने की प्रक्रिया में लीन रहना चाहिए। भाषा चाहे जो भी हो, उसकी शुद्धता होनी चाहिए।
कार्यक्रम का संचालन सह प्राचार्य डॉ. आनन्द प्रकाश गुप्ता ने किया। कार्यक्रम में वरीय शोधप्रज्ञ कृष्णा अनुराग,अभिषेक कुमार सिन्हा, धर्मेन्द्र दास, सियाराम मुखिया समेत बड़ी संख्या में शोधार्थीगण एवं छात्र-छात्राऍं उपस्थित रहे।