दिनांक 20/05/2022 को छायावाद के सशक्त स्तंभ कविवर सुमित्रानन्दन पंत की जयंती के अवसर पर विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा में संगोष्ठी आयोजित की गयी।

इस अवसर पर प्रो० राजेन्द्र साह ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि पंतजी का छायावादी काव्य में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रकृति के विविध पक्षों का जिस प्रकार सूक्ष्मातिसूक्ष्म, हृदयग्राही एवं आत्मिक चित्रण पंत ने किया है,वैसा अन्य कवियों ने नहीं| उन्होंने कहा कि उनकी कविताओं में प्रकृति – चित्रण अभूतपूर्व है तो उसके पीछे कारण यह है कि उनका जन्म ही हिमालय के आँचल में हुआ था, जहाँ प्रकृति के नैसर्गिक रूप को कण-कण में देखा जा सकता था।

डॉ० साह ने आगे कहा कि पंतजी की रचनाओं में अपने ढंग की वैयक्तिकता दीखती है।उनकी रचनाओं में क्रमिक विकास है,जिसकी परिणति मानववाद में होती है| अरविंद दर्शन से प्रभावित उनकी रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि उनकी रचनाओं में हर प्राणी को अपने समान समझने – देखने का दर्शन प्रतिष्ठित एवं प्रतिपादित है।

पंत की आलोचनात्मक पुस्तक ‘छायावाद : पुनर्मूल्यांकन’ पर भी डॉ० साह ने प्रकाश डाला। उनकी रचनाओं में आत्मीयता, सहजता और कोमलता की अद्भुत त्रिवेणी दिखाई पड़ती है। छायावाद में जिस परिमाण में प्रकृतिपरक रचनाओं का सृजन हुआ, वैसा हिंदी साहित्य के हज़ार वर्षों के कालखंड में कहीं नहीं दिखता।

संगोष्ठी में बीज वक्ता डॉ० सुरेंद्र प्रसाद सुमन ने कहा कि प्रकृति आदमी से अलग नहीं है। इस दृष्टि से देखा जाए तो उनकी प्रकृतिपरक रचनाएँ सीधे मानव जीवन से जुड़ती हैं। वे जिस युग में छायावादी कविताएं लिख रहे थे उस समय वह वक्त की ज़रूरत थी। ‘जो हो सके मानव हित समान’ उनकी कविताओं का केंद्रीय तत्त्व था। छायावाद के बाद जब वैश्विक स्थितियाँ बदलने लगीं तो उसका प्रभाव भारतीय साहित्यकारों पर भी पड़ा जिसमें पंत अग्रणी रहे। अपनी प्रगतिवादी रचनाओं में उन्होंने सामाजिक यथार्थ का चित्रण किया है। डॉ० सुमन ने कहा कि मुल्क बचेगा तब ही हम भी बचेंगे, पंतजी की रचनाओं में भी ये प्रश्न लगातार बरकरार रहे।
शोधप्रज्ञ मंजू सोरेन ने कहा कि जब छायावाद से उनका मोहभंग हुआ तब उन्होंने प्रगतिवादी रचनाओं से समाज को आलोकित किया। उन्होंने कहा कि आज जल, जंगल और जमीन बचाने को लेकर आंदोलन चल रहे हैं, ऐसे समय में पंतजी की रचनाएं बार-बार याद आती हैं।

सियाराम मुखिया ने कहा कि सुमित्रानन्दन पंत आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रिय कवि थे। उन्होंने अपने इतिहास ग्रन्थ में उन्हें सबसे ज्यादा स्थान दिया है। विभाग की छात्रा स्नेहा कुमारी ने कहा कि पंतजी ने कहा था कि ‘वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान।’ वे सम्पूर्ण जीवन अविवाहित रहे तथा जीवनपर्यंत रूढ़िवाद का खंडन करते रहे।
छात्र दीपक कुमार की अभिव्यक्ति थी कि ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ के रूप में हम पंत जी को जानते हैं।

छात्रा शिवानी कुमारी ने कहा कि पंत जी ने प्रकृति के आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में चित्रण किया है।
छात्र दर्शन सुधाकर ने कहा कि प्रकृति का आज जिस प्रकार दोहन हो रहा है ऐसे समय पंत बराबर याद आते हैं।

छात्र शिवम मिश्रा का कहना था कि पंत की रचनाओं में जो प्रकृति है वह वस्तुतः भारत माता का प्रतीक है।

छात्र हितेंद्र कुमार ने कहा कि छायावाद के महत्त्वपूर्ण स्तम्भ हैं पंत। उनकी रचनाओं में आत्मानुभूति की गहराई है। मंच का सफल संचालन विभाग के वरीय शोधप्रज्ञ कृष्णा अनुराग ने किया। धन्यवाद ज्ञापन शोधप्रज्ञा शिखा सिन्हा ने किया। इस अवसर पर शोधप्रज्ञ धर्मेन्द्र दास, शोधप्रज्ञ सरिता कुमारी, पुष्पा कुमारी समेत बड़ी संख्या में शोधार्थी और स्नातकोत्तर के विद्यार्थी उपस्थित रहे।