वेद का निरंतर अध्ययन जरूरी : पूर्व कुलपति

त्रिदिवसीय अखिल भारतीय वैदिक संगोष्ठी का दूसरा दिन
संस्कृत विश्वविद्यालय में वेद-दर्शन पर तीन सत्रों में हुआ मंथन

#MNN24X7 दरभंगा, कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर दर्शन विभाग तथा महर्षि सांदीपनि वेद विद्यापीठ के संयुक्त तत्त्वावधान में दरबार हॉल में आयोजित त्रिदिवसीय अखिल भारतीय वैदिक संगोष्ठी के दूसरे दिन तीसरे सत्र में सारस्वत अतिथि श्रीलाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रो.महानन्द झा ने अपने व्याख्यान में भारतीय दर्शन में मोक्ष-संविचार के विविध स्वरूपों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए बताया कि भारतीय दार्शनिक परम्पराएं चाहे सांख्य हो या योग, वेदांत, मीमांसा, न्याय या फिर वैशेषिक, सभी के सभी अंततः मोक्ष को ही परम पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार करती हैं। डा. झा ने स्पष्ट किया कि इन विविध दार्शनिक मतों में दिखाई देने वाला वैचारिक भेद वस्तुतः उपनिषदों में प्रतिपादित परब्रह्म-तत्त्व की ही भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ हैं।

उन्होंने कहा कि उपनिषदों के ‘अद्वैत’, ‘अन्तर्यामित्व’, ‘आत्मविद्या’ तथा ‘ब्रह्मविद्या’ के सिद्धांत भारतीय दर्शन के विभिन्न मतों को एक सूत्र में पिरोते हैं। इसलिए ऐसे में सभी दर्शनों का अंतिम लक्ष्य आध्यात्मिक मुक्ति (मोक्ष) ही है। उक्त जानकारी देते हुए पीआरओ निशिकांत ने बताया कि मुख्य अतिथि डॉ. रवीन्द्रनाथ भट्टाचार्य ने वेदों के अध्धयन पर काफी जोर दिया।

उन्होंने कहा कि वेदांगों सहित वेदों का अध्ययन प्रत्येक विद्यार्थी को अवश्य करना चाहिए। वेद अनादि एवं अपौरुषेय हैं। इसलिए उनका महत्व सनातन है। उन्होंने कहा कि जैमिनि शास्त्र के आधार पर ही वेद का अर्थ एवं तात्पर्य का यथार्थ निर्णय किया जा सकता है।

वहीं, विश्व शांति निकेतन, कलकत्ता के प्रो. अरुण रंजन मिश्र ने योग दर्शन दृष्टि से वैदिक मंत्रों की विस्तार से चर्चा शुद्धता व पवित्रता पर की ।

मुख्यातिथि प्रो.धर्मदत्त चतुर्वेदी ने छन्दोबद्ध शैली में वैदिक मंत्रों का दार्शनिक विवेचन करते हुए उपस्थित श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। उन्होंने मिथिला क्षेत्र के प्राचीन विद्वानों का नाम स्मरणकर उनके कृतित्व एवं व्यक्तित्व को विस्तार से बताया। आगे कहा कि अपरा काशी के रूप में मिथिला की धरती है। साथ ही जोड़ा कि मिथिला एवं काशी की पाण्डित्य परम्परा अनुकरणीय रही है।

इसी क्रम में पत्रवाचन करते हुए डॉ. छबिलाल न्यौपाने ने कहा कि भारतीय दर्शन में प्रतिपादित पदार्थों का स्वरूप वेदों में वर्णित पदार्थ-स्वरूप के पूर्णतया अनुकूल है। अतः भारतीय दर्शन हमारी प्रामाणिक और शाश्वत बौद्धिक धरोहर है। तृतीय सत्र के अध्यक्षीय उद्बोधन में का.सिं.द.सं.वि.वि. के पूर्व कुलपति प्रो.देवनारायण झा ने कहा कि मूलतः वेद के आठ अर्थ बताए जाते हैं। भारतीय दर्शन में वेद को पौरुषेय तथा अपौरुषेय दोनों रूपों में माना गया है। अद्वैत दर्शन को छोड़कर अन्य सभी दर्शनों में द्वैतवाद की प्रधानता है।

उन्होंने कहा कि वेद का निरंतर अध्ययन आवश्यक है। इसके अध्ययन से मनुष्य में ब्रह्मत्व का उदय होता है। इतना ही नहीं, इससे भूत, भव्य और भविष्य तीनों अवस्थाओं का ज्ञान भी प्राप्त होता है। उन्होंने कहा कि वेद को चक्षु (आध्यात्मिक नेत्र) भी कहा गया है। यह सत्य का प्रकाश करता है।

चतुर्थ सत्र में सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के डॉ.दिव्यचेतन स्वरूप शास्त्री ने व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से वैदिक मंत्रों का दार्शनिक विवेचन किया। इस सत्र की अध्यक्षता व्याकरण विभागाध्यक्ष डॉ दयानाथ झा ने जबकि पंचम सत्र की अध्यक्षता पूर्व कुलपति डॉ रामचन्द्र झा ने की।

वहीं, केएसडीएसयू दरभंगा के पूर्व दर्शन संकायाध्यक्ष सारस्वतातिथि प्रो.बौआनंद झा जी ने कहा कि सभी शास्त्रों की जड़ वेद है। उन्होंने विश्वविद्यालय में अधिकांश संख्या में वेद की रिक्तियां सरकार को भेजकर योग्य अध्यापकों की नियुक्ति इस विश्वविद्यालय में करने की मांग की।

धर्मशास्त्रमीमांसा विभागाध्यक्ष, वाराणसी के मुख्यातिथि प्रो.माधवजनार्दनरटाटे ने कहा कि मन्त्र का लक्षण नहीं किया जाता। मीमांसा में वर्णित विधि के चार विभागों का उन्होंने विस्तार से चर्चा की।

कार्यक्रम में कुलपति प्रो.लक्ष्मी निवास पाण्डेय, पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित प्रो.अभिराज राजेन्द्र मिश्र, प्रो.दिलीप कुमार झा, प्रो.विनय कुमार झा, प्रो.पुरेन्द्र वारिक, डॉ.रामसेवक झा, डॉ.शम्भुशरण तिवारी, डॉ.संजीत कुमार झा, डॉ. विपिन कुमार झा, श्रवण कुमार, डॉ.त्रिलोक झा, डॉ.निशा सहित दर्जनों शोधार्थी एवं छात्र -छात्राएं उपस्थित थे।