#MNN24X7 मिथिलांचल, जो पूर्व से ही साहित्य,राजनीति, वैचारिकता और सामाजिक आंदोलन का केंद्र रहा है, आज भी उस सामाजिक संरचना से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है, जिसमें सत्ता का अधिकार पुरुषों के हाथों में ही केंद्रित रहा है। उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे पड़ोसी राज्यों ने ऐसी महिला नेताओं को देखा, जिन्होंने न सिर्फ सत्ता संभाली, बल्कि विपक्ष से सम्मान भी पाया। मगर बिहार में आज तक ऐसी कोई महिला नेता नहीं उभरीं, जिन्हें जनता और विपक्ष समान रूप से स्वीकार कर सके। सवाल है—क्यों?

पितृसत्ता की जड़ें: राजनीति का अदृश्य शासन

मिथिला की राजनीति में पितृसत्ता एक अदृश्य शासन की तरह काम करती है।यहां महिला को आज भी “सशक्त मतदाता” तो माना गया, लेकिन “संभावित नेता” के रूप में नहीं। राजनीतिक दल महिलाओं को टिकट देने में हिचकते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि “वोट बैंक” जाति, धर्म और पुरुष उम्मीदवारों की लोकप्रियता से तय होता है। नतीजा यह है कि बिहार विधानसभा में आज भी महिलाओं की संख्या प्रतीकात्मक ही है, जबकि पंचायत चुनावों में 50% आरक्षण के कारण हजारों महिलाएं नेतृत्व में आई हैं।

जातिवाद: सत्ता की सबसे बड़ी बाधा

आधुनिक मिथिला की राजनीति जाति के समीकरणों पर इतनी गहराई से टिकी है कि विचारधारा, नीतियां और लिंग समानता सभी गौण हो जाते हैं। नेता यह सोचते हैं कि चुनाव जीतने का सबसे आसान रास्ता जातीय गठजोड़ है, न कि सामाजिक सुधार या महिला सशक्तिकरण का एजेंडा।यही कारण है कि महिला को उम्मीदवार बनाने से पहले यह देखा जाता है कि वह “किस जाति” से आती है, न कि वह “कितनी सक्षम” है। मायावती या ममता बनर्जी का उदय इसलिए संभव हुआ क्योंकि उन्होंने जाति से ऊपर उठकर वर्ग और संघर्ष की राजनीति की, जबकि बिहार में जाति ही पहचान बन गई।

मिथिला: जनक-नंदिनी की भूमि, मगर राजनीति में स्त्री अनुपस्थित

मिथिला—जहाँ जनक की पुत्री जानकी को समर्पण और शक्ति दोनों का प्रतीक माना जाता है, वहाँ की समकालीन राजनीति में स्त्रियों की भूमिका अत्यंत सीमित है।यह विरोधाभास सोचने पर मजबूर करता है।यह वही भूमि है जहाँ विद्या, कला, तर्क और संवाद की परंपरा रही—पर राजनीति में स्त्रियाँ अब भी किनारे हैं। मिथिला की महिलाएँ शिक्षा, समाजसेवा और प्रशासन में अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं, लेकिन राजनीतिक दलों ने उन्हें अब भी “फ्रंटलाइन” में जगह नहीं दी।

स्त्री मुद्दों का हाशियाकरण: चुनावी रैलियों से नदारद महिला आवाज़ें

बिहार चुनावों में जब भी मंच सजता है, तो नारों में गरीबी, बेरोजगारी, आरक्षण, विकास—सबका ज़िक्र होता है, पर स्त्री के वास्तविक मुद्दे गायब रहते हैं। महिला सुरक्षा, स्वास्थ्य, समान वेतन, शिक्षा, और निर्णय-निर्माण में भागीदारी जैसे प्रश्न कभी प्राथमिकता में नहीं आते। राजनीतिक दल महिलाओं को “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” के पोस्टर तक सीमित रख देते हैं, लेकिन उन्हें नीति निर्धारक बनाने की बात कोई नहीं करता।

पंचायतों में आरक्षण के बाद बड़ी संख्या में महिलाएँ निर्वाचित हुईं, लेकिन उनमें से अधिकांश “प्रॉक्सी” के रूप में कार्य कर रही हैं—निर्णय उनके पति या परिवार के पुरुष सदस्य लेते हैं। यह दर्शाता है कि पितृसत्ता सिर्फ सत्ता में नहीं, बल्कि सोच में भी गहराई तक जड़ें जमाए बैठी है। राजनीति में सच्ची महिला नेतृत्व तब आएगी जब महिला स्वयं निर्णय ले, न कि किसी पुरुष की छाया बनकर रहे।

आवश्यक है नई राजनीतिक दृष्टि

अब समय आ गया है कि राजनीति को “पुरुष बनाम पुरुष” की परंपरा से बाहर निकालकर “योग्यता बनाम अयोग्यता” की दिशा में मोड़ा जाए। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे महिला उम्मीदवारों को केवल प्रतीक नहीं, बल्कि नीति निर्माता के रूप में प्रस्तुत करें। सिविल सोसाइटी, विश्वविद्यालय और मीडिया को भी महिला नेतृत्व पर विमर्श को आगे बढ़ाना चाहिए।मिथिला जैसी सांस्कृतिक धरती से यह परिवर्तन शुरू हो सकता है—जहाँ जनकनंदिनी के आदर्श को सिर्फ पूजा न जाए, बल्कि उनके आदर्शों को राजनीतिक आचरण में उतारा जाए।

बिहार की राजनीति में स्त्रियों की उपस्थिति अब भी एक अधूरी कहानी है। यह वह राज्य है जहाँ आंदोलन पनपे, विचार उपजे, पर समानता की राजनीति जड़ नहीं पकड़ सकी। अगर पितृसत्ता और जातिवाद की दीवारें नहीं टूटीं, तो बिहार फिर से उन अवसरों से वंचित रहेगा जो पड़ोसी राज्यों ने हासिल किए हैं।

स्त्रियाँ अगर मतदान में अग्रणी हो सकती हैं, तो वे नेतृत्व में भी अग्रणी बन सकती हैं—बस जरूरत है समाज और राजनीति दोनों के दृष्टिकोण में बदलाव की। हमें ध्यान रखना होगा कि जहां कहीं भी योग्य महिलाये चुनाव में हैं, तो उन्हें पूरा समर्थन और वोट मिलना चाहिए। हमें उन्हें जिताने की कोशिश करनी होगी, तभी उनका मनोबल बढ़ेगा।“ अब हमको भी अपनी सोच बदलनी होगी।”