वाल्मीकि रामायण में वर्णित पर्यावरण चेतना की प्रसंगिकता’ विषयक कार्यक्रम में 65 से अधिक व्यक्तियों की हुई सहभागिता।
कार्यक्रम में डॉ घनश्याम, ई राजदेव, प्रो जयप्रकाश, डा मित्रनाथ, डा विकास तथा डा चौरसिया आदि ने रखे महत्वपूर्ण विचार।
#MNN@24X7 ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग तथा मिथिला स्नातकोत्तर संस्कृत अध्ययन एवं शोध संस्थान, दरभंगा के संयुक्त तत्वावधान में “वाल्मीकि रामायण में वर्णित पर्यावरण चेतना की प्रासंगिकता” विषयक राष्ट्रीय ऑनलाइन तथा ऑफलाइन सेमिनार का आयोजन पीजी संस्कृत विभाग में किया गया।
विश्वविद्यालय संस्कृत विभागाध्यक्ष डा घनश्याम महतो की अध्यक्षता में आयोजित कार्यक्रम का उद्घाटन मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा के निदेशक ई राजदेव प्रसाद ने किया। कार्यक्रम में जामिया मिलिया इस्लामिया केन्द्रीय विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो जयप्रकाश नारायण मुख्य अतिथि के रूप में, मिथिला शोध संस्थान, दरभंगा के शास्त्र चूड़ामणि डा मित्रनाथ झा मुख्य वक्ता, मारवाड़ी कॉलेज के संस्कृत विभागाध्यक्ष डा विकास सिंह विशिष्ट वक्ता तथा विभागीय संस्कृत- प्राध्यापक सह कार्यक्रम संयोजक डा आर एन चौरसिया विषय प्रवेशक के रूप में विचार व्यक्त किया।
विभागीय शिक्षिका डा ममता स्नेही ने स्वागत, आरबीएस कॉलेज, अंदौर के संस्कृत विभागाध्यक्ष डा राम नारायण राय ने संचालन तथा डा मोना शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन किया। वहीं सविता आनंद, कृष्ण देव पासवान, विश्वनाथ ठाकुर, मंजू अकेला, विद्यासागर भारती, योगेन्द्र पासवान तथा उदय कुमार उदेश ऑफलाइन माध्यम से, जबकि असम से डा मृणाल कांति सरकार, डा एमएन भारद्वाज, डा कमलेश झा, डा लक्ष्मण यादव, पश्चिम बंगाल से शोधार्थी नजमा हसन, मणिपुष्पक घोष व सदानंद विश्वास, आशीष रंजन, प्रहलाद कुमार, सोमनाथ दास, राकेश कुमार चौधरी, सज्जन आर्य, श्रवण साह, रोशन कुमार झा, कुमारी सविता झा, राकेश कुमार, शब्दिता, साजन विद्यालंकार, पूजा ठाकुर, सुमन झा, श्वेता झा, प्राची पराशर, आशुतोष कुमार, निर्मल कुमारी, मिलन कुमार, सुधांशु झा, सारविन्द कुमार, संगीता कुमारी, सत्येन्द्र, वीणा मिश्रा, राजेश मिश्र, रागिनी यादव सज्जन कुमार, कृष्ण नारायण झा, ज्योति कुमारी, विवेक झा तथा सुमन झा सहित 65 से अधिक व्यक्तियों ने भाग लिया।
उद्घाटन संबोधन में ई राजदेव प्रसाद ने कहा कि पर्यावरण प्रदूषण एक वैश्विक समस्या है, जिसका निदान हमारे ऋषि- मुनियों द्वारा वैदिक काल से वर्णित पर्यावरण चेतना के उपायों के अनुकरण से ही संभव है। वेदों में भी पर्यावरण के सुखकारी होने की कामना की गई है। विशेष रूप से रामायण में पर्यावरण के प्रति अत्यधिक जागरूकता देखी जा सकती है। इसमें पर्यावरण पोषी अनेक वृक्षों एवं उपायों का वर्णन है। शुद्ध पर्यावरण के लिए मानव तथा प्रकृति के बीच सह अस्तित्व का संबंध होना आवश्यक है।
मुख्य वक्ता के रूप में डा मित्रनाथ झा ने कहा कि रामायण को आदि महाकाव्य होने का गौरव प्राप्त है, जिसमें क्रौंचबध को देखकर वाल्मीकि द्वारा व्यक्त भावना उनके प्रकृति प्रेम का द्योतक है। अनेक रामायणों में वाल्मीकि रामायण सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं प्रमाणिक है। आज पूरे शैक्षणिक जगत में पर्यावरण प्रदूषण की व्यापक चर्चा हो रही है। रामायण के अरण्य तथा किष्किंधाकाण्ड में वर्णित पर्यावरण चेतना दर्शनीय एवं अनुकरणीय है।
मुख्य अतिथि के रूप में प्रो जयप्रकाश नारायण ने कहा कि रामायणकाल में मानव और प्रकृति के सभी अंगों में आत्मीय भाव एवं नि:स्वार्थ संबंध था। इसमें प्रकृति एवं मानव का संबंध परस्पर अन्योन्याश्रित रूप में वर्णित है जो एक शाश्वत संबंध है। रामायण में स्थापित प्राकृतिक आदर्शों का अनुसरण कर हम पर्यावरणीय संकट से मुक्ति पा सकते हैं।
विशिष्ट वक्ता के रूप में राजस्थान से मारवाड़ी कॉलेज दरभंगा के संस्कृत विभागाध्यक्ष डा विकास सिंह ने कहा कि रामायणकाल में प्रकृति जीवन का अभिन्न हिस्सा था। प्रकृति मनुष्य के इर्द-गिर्द घूमती थी। यदि प्रकृति स्वच्छ एवं संतुलित है तो मानव जीवन भी सुखी एवं समृद्ध होगा। हमें इगो को छोड़कर इको को अपनाना होगा, अगली पीढ़ी को हम स्वच्छ पर्यावरण दे सकेंगे।
अध्यक्षीय संबोधन में डा घनश्याम महतो ने विषय को विस्तृत एवं प्रासंगिक बताते हुए कहा कि पर्यावरण से हमारा अन्योन्याश्रित संबंध है। शुद्ध पर्यावरण के बिना मानव जीवन की कल्पना असंभव है। स्वस्थ एवं सुखी जीवन के लिए स्वच्छ एवं संतुलित पर्यावरण आवश्यक है। रामायण मानव जीवन के आदर्शों का सर्वोत्तम दर्पण है जो मानव को उसके सदाचरण से पवित्र बनाते हुए प्रकृति एवं उसके उपादानों से नि:स्पृह प्रेम करना सिखाता है।
विषय प्रवेश कराते हुए डा आर एन चौरसिया ने कहा कि आज आम जनमानस में पर्यावरण चेतना के अभाव के कारण ही पर्यावरण प्रदूषण की महती समस्या के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है। प्रकृति ही प्राणियों के जीवन का मूल आधार है। मानव जीवन को स्वस्थ एवं पृथ्वी पर सरलता से जीने के लिए हमें पर्यावरण चेतना को विकसित करते हुए, उन्हें रामायण के अनुसार परमात्मा का प्रसाद मानकर उनका संरक्षण एवं संवर्धन करना होगा, अन्यथा आने वाले समय में जीवन विनष्ट हो जाएगा। प्रकृति हमारी जरूरतों को तो पूरी कर सकती है, परंतु हमारे लालचों को नहीं। राष्ट्रगान के सामूहिक गायन से सेमिनार का समापन हुआ।