संगोष्ठी में पठित आलेखों के पुस्तककार का किया गया विमोचन

#MNN@24X7 दरभंगा, भारत गांवों का देश है। गांवों में आज भी शहर की दौड़-धूप से दूर, एक अलग ही दुनिया बसती है। मिथिला के गांवों की स्थिति भी देश के अन्य हिस्सों के गांवों से अलग नहीं है। यहां के गांव का माहौल और वहां के लोग निराले होते है। भौतिक सुखों की कमी जरूर होती है, लेकिन जीवन में हर्षोउल्लास की कोई कमी नहीं रहती है। भौतिकता से दूर मिथिला के गांवों में रहने वाले लोग अपने ही सपनों की दुनिया में रहते हैं। इनके घर जरूर मिट्टी से बने होते हैं लेकिन इनके दिल आज भी सोने जैसे खरे होते हैं। यह बात विद्यापति सेवा संस्थान के तत्वावधान में 51वें मिथिला विभूति पर्व समारोह अंतर्गत आयोजित ‘मिथिलाक गाम’ विषयक संगोष्ठी में बतौर मुख्य अतिथि अपना विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार विष्णु कुमार झा ने कहा।

उन्होंने कहा कि आज भी असली भारत का दिल मिथिला के गांवों में बसता है। मिथिला के गांवों में संस्कृति और संस्कार की अमृत धारा बहती है। लेकिन मौजूदा समय में स्वार्थ परक राजनीति की चकाचौंध ने गांवों को भी नहीं बख्शा है। सत्ता पर काबिज लोग गांवों की खूबसूरती को बिगाड़ने का कुत्सित प्रयास करने से बाज नहीं आ रहे और उन्हें दिग्भ्रमित करने में निरंतर लगे हैं।

कार्यक्रम का विधिवत उद्घाटन करते हुए वरिष्ठ शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ ओमप्रकाश ने कहा कि कठोर परिश्रम, सरल व उदार स्वभाव मिथिला के लोगों की विशेषताएं हैं । मिथिला के गांवों में आज भी सुबह जब किसान अपने खेतों में हल चलाते हैं, तो पक्षी उनके बैलों की गति के साथ श्रम की महिमा का सुगम संगीत छेड़ देते हैं। उन्होंने कहा कि मिथिला के गांवों में रहने वाले निश्छल स्वभाव के लोगों को अपना स्वास्थ्य सुदृढ रखने के लिए झोलाछाप डॉक्टरों से बचने की जरूरत है।उन्हें योग्य चिकित्सक से परामर्श लेकर एंटिबायोटिक दवाओं से परहेज़ करना चाहिए।

मुख्य वक्ता के रूप में प्रसिद्ध वनस्पति विज्ञानी एवं एमएलएसएम काॅलेज के पूर्व प्रधानाचार्य डॉ विद्यनाथ झा ने कहा कि मिथिला के गांवों की प्राकृतिक छटा आज भी मन मोह लेती है। दूर-दूर तक लहलहाते हुए हरे-भरे खेत और चारों तरफ रंग-बिरंगे फूल और हवा में उनकी फैली हुई एक अलग खुशबू कहीं और हो ही नहीं सकती। चारों तरफ चहचहाते हुए पक्षी मन मोह लेते हैं । सादगी और प्राकृतिक शोभा के भण्डार, मिथिला के गांवों की अपनी कथा है।

उन्होंने कहा कि मिथिला के गावों में आज भी भारतीय संस्कृति के दर्शन होना इसकी खासियत है। मिथिला के गांवों में सदियों से चली आ रही परंपराएं आज भी कायम है।
वयोवृद्ध समाजसेवी शिवकांत झा ने कहा कि गांव का जीवन शांतिदायक होता है। मिथिला के गांवों में रहने वाले लोग शहरी लोगों की तरह निरंतर भाग-दौड़ में नहीं लगे रहते हैं। यहां के लोग सुबह जल्दी जगते है तथा रात में जल्दी सो जाते हैं। यहां की वायु महानगरों की वायु की तरह अत्यधिक प्रदूषित नहीं होती। यहां बाग-बगीचे होते है जहां के फूलों की सुगंध हवा में व्याप्त रहती है।

केशवकुंज के निदेशक पवन कुमार मिश्र ने कहा कि मिथिला के विभिन्न गांवों में रहने वाले लोगों में अपनापन और सामाजिक घनिष्ठता पाई जाती है। जहां खुली धूप और हवा का आनंद सहज ही उठाया जा सकता है। यहां की हरियाली में सर्वथा शांति पसरी होती है।

इससे पहले अतिथियों का स्वागत करते हुए विद्यापति सेवा संस्थान के महासचिव डॉ बैद्यनाथ चौधरी बैजू ने कहा कि मिथिला के विभिन्न गांवों के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, साहित्यिक और भाषा के क्षेत्र में समग्र विकास के लिए पृथक मिथिला राज्य का गठन निहायत जरूरी है। क्योंकि सांस्कृतिक संपन्नता के लिए दुनिया भर में विख्यात मिथिला आज सरकारी अपेक्षाओं के कारण लगातार आर्थिक पिछड़ेपन का शिकार होने को मजबूर हो रहा है। उन्होंने कहा कि सरकारी उदासीनता का नतीजा है कि जिस मिथिला क्षेत्र के गांव-गांव में कभी शिक्षा का केंद्र हुआ करता था, आज वहां के छात्र पलायन को मजबूर हो रहे हैं।

कार्यक्रम का संचालन करते हुए राष्ट्रीय संगोष्ठी के संयोजक सर्व वरिष्ठ साहित्यकार मणिकांत झा ने कहा कि मिथिला के गांव दो देशों और दो राज्यों की सीमा से लगा होने के बावजूद अपने संस्कार और संस्कृति को अभी भी अक्षुण्ण बनाए हुए है। यह इसकी न सिर्फ विशेषता है बल्कि दूसरे प्रांतों के लिए आदर्श भी है। उन्होंने कहा कि मिथिला के गांव सूखा और बाढ़ की समस्या का निरंतर शिकार होते रहे हैं और इसके आस पास आंसू पोछने वाला कोई नहीं है। जहां एक और खेती चौपट हो गई है, वहीं मिथिला के मजदूर पलायन करने को विवश हो रहे हैं। रोजगार के अभाव का दंश झेलने के लिए भी यह क्षेत्र कम मजबूर नहीं हो रहा। चीनी मिल, पेपर मिल, जूट मिल आदि यहां कबार का ढेर मात्र बने हुए हैं। मिथिला की प्रतिभा रोटी के लिए विभिन्न प्रदेशों में मजदूरी करने को विवश है।

कार्यक्रम के दौरान संगोष्ठी में भाग लेने वाले प्रतिभागियों ने अपने आलेख पढ़े और मिथिला के विभिन्न गांवों की ऐतिहासिक , भौगोलिक, आर्थिक एवं वर्तमान यथास्थिति पर विस्तार से चर्चा की। संगोष्ठी के दौरान प्रतिभागियों के आलेखों के पुस्तकाकार स्वरूप का सभी अतिथियों एवं प्रतिभागियों ने मिलकर विमोचन किया।

अध्यक्षीय संबोधन में अयोध्या नाथ झा ने कहा कि मिथिला क्षेत्र लगातार बिहार से अलग होने की बात कर रहा है। क्योंकि मैथिलों के लिए बिहारी शब्द मिथिला के नैतिक पहचान ,नैतिक मूल्य, सभ्यता-संस्कृति, भाषा एवं विकास में बाधक जान पड़ता है और उन्हें लगता है कि इस कारण बिहार में मैथिलों की पहचान लुप्त होती जा रही है। उन्होंने मिथिला के गांवों की यथास्थिति पर केन्द्रित आलेखों के पुस्तकाकार संकलन को उपयोगी बताया।

गंधर्व कुमार झा एवं भास्कर की वेद ध्वनि से शुरू हुई संगोष्ठी में केदारनाथ कुमर ने स्वागत गीत एवं गणेश वंदना प्रस्तुत किया। प्रतिभागियों में मित्र नाथ झा ने सरसों पाही, रामचंद्र राय ने सहुरिया नवटोली, प्रीतम कुमार निषाद ने मुरहदी , डॉ महेंद्र नारायण राम ने खुटौना , संजीव कुमार मिश्र व शंभु नाथ मिश्र ने आसी, इंदु कुमारी ने सिमरा, रघुवर मिश्र ने सिंघिया, प्रतिभा स्मृति ने जयनगर, फूलचंद झा प्रवीण ने तुमौल, कल्याण कुमार झा ने जजुआर, राकेश चंद्र नंदन ने श्यामसिद्धप, राधा कृष्ण झा ने हिरणी, हरिश्चंद्र हरित व विजय शंकर झा ने मांऊबेहट , शिवाकांत झा ने पिंडारूच, प्रवीण कुमार झा, कल्पना झा एवं मुकुंद मयंक ने टटुआर , रमेश झा ने बलहा, सोनी चौधरी ने नेहरा, डॉ कृष्ण कुमार झा ने नवकरही गांवों पर आधारित आलेख प्रस्तुत कर अपने विचार साझा किए।

कार्यक्रम में प्रो जीवकांत मिश्र, डाॅ गणेश कांत झा, प्रो चन्द्र शेखर झा बूढाभाई, नीतीश सौरभ, संतोष कुमार झा, आशीष चौधरी, पुरुषोत्तम वत्स आदि की उल्लेखनीय उपस्थिति रही। सभी प्रतिभागियों को प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति उपहार प्रदान करने के साथ ही पाग, चादर एवं कलम भेंट कर सम्मानित किया गया।