महान आंचलिक कथाकार रेणु जी सजग सांस्कृतिक चेतना के साहित्यकार– प्रो उमेश कुमार।
#MNN@24X7 दरभंगा, 04 मार्च, महान आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की जयंती के अवसर पर ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग के तत्वावधान में ‘रेणु जी के साहित्य में आंचलिक एवं सांस्कृतिक मूल्यबोध’ विषयक संगोष्ठी आयोजित की गई।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए विभागाध्यक्ष प्रो. उमेश कुमार ने कहा कि रेणु जी एक सजग सांस्कृतिक चेतना के साहित्यकार हैं। उनकी कहानियों में, उपन्यासों में सांस्कृतिक पहलू जरूर होता है। वास्तव में रेणु जी ने अपनी पहली ही रचना ‘मैला आंचल’ से आंचलिक कथा लेखन का प्रारंभ किया। उन्होंने ‘मैला आंचल’ में आंचालिकता को परिभाषित भी किया है।
उन्होंने रेणु जी से जुड़े संस्मरणों के माध्यम से बताया कि रेणु जी ने ‘मैला आंचल’ सर्वप्रथम अनूप लाल मंडल जी को दिखाया था। जो स्वयं एक सिद्धहस्त उपन्यासकार थे। उन्होंने इक्कीस उपन्यासों की रचना की थी, लेकिन साहित्य जगत में अनूप लाल मंडल जैसे कितने ही आंचलिक साहित्यकार गुमनाम रह गए। आज आवश्यकता है कि सभी आंंचालिक साहित्यकारों पर चर्चा हो, उनकी रचनाओं को प्रकाश में लाया जाए। तभी हम अपने सांस्कृतिक व आंचलिक मूल्यों की रक्षा कर पाएंगे।
कार्यक्रम को संबोधित करते हुए वरिष्ठ प्राध्यापक प्रो. सुरेंद्र सुमन ने कहा कि रेणु जी को हिन्दी का वाल्तेयर भी माना जाता है। रेणु जी ने साहित्य को एक नई विधा दी, बल्कि उनके लेखन से आंचालिकता को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली।
उनके लेखन में कोसी अंचल की करुणा और पीड़ा के साथ–साथ देश के आम अवाम की पीड़ा की घनीभूत अभिव्यक्ति है। शोषितों– वंचितों की मुक्ति का विराट स्वप्न ही रेणु जी की जीवन शक्ति है।
मंच संचालन करते हुए वरिष्ठ प्राचार्य प्रो.आनंद प्रकाश गुप्ता ने रेणु जी के व्यक्तिव एवं कृतित्व पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि रेणु जी ने साहित्य में अंचल को प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ‘तीसरी कसम’, ‘मारे गए गुलफाम’ ऐसी कहानियां हैं, जिनमें जनता अपना प्रतिबिंब पाती है।
वहीं सहायक प्राचार्या डॉ. मंजरी खरे ने कहा कि स्वातंत्र्योत्तर भारत में विकास की योजनाएं नगरों को केन्द्र में रखकर बनीं, गांवों की उपेक्षा की गई। साहित्य में भी नगरीय जीवन की ही विशेष रूप से चिंता की गई। रेणु ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने गांव को प्रश्रय दिया। उनके कथा साहित्य में गांव से पलायन, विस्थापन की पीड़ा मिलती है जो रेणु जी की भी पीड़ा है। अगर हम नगर की ओर पलायन करते रहेंगे तो ग्रामीण संस्कृति कैसे बचेगी? सच्चे मायनों में रेणु जी अपनी जड़ों को बचाए रखने के लिए प्रेरित करते हैं।
मौके पर वरीय शोध छात्र समीर, दुर्गानंद ठाकुर, खुशबू कुमार, खुशी कुमारी, बेबी कुमारी, बबिता, रूबी, मलय नीरव, जयप्रकाश, नबी हुसैन, अमित कुमार, सुभद्रा कुमारी, मनोज कुमार, दीपक कुमार, विक्रम कुमार, दर्शन सुधाकर सहित बड़ी संख्या में स्नातकोत्तर छात्र– छात्राओं की उपस्थिति रही। धन्यवाद ज्ञापन शोध छात्रा खुशबू कुमारी ने किया।