विशेष रिपोर्ट | मैथिली न्यूज नेटवर्क

#MNN24X7 दरभंगा, मिथिला की धरती जितनी समृद्ध संस्कृति, भाषा और परंपरा से भरी है, उतनी ही गहरी इसकी कलात्मक अभिव्यक्ति भी रही है। इसी परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है — मैथिली सिनेमा। कभी सीमित संसाधनों और संघर्षों में पला यह क्षेत्रीय सिनेमा आज डिजिटल युग में नई उड़ान भरने को तैयार है।

तब: शुरुआत और संघर्ष का दौर

प्राप्त जानकारी के अनुसार मैथिली सिनेमा की यात्रा 1965 में बनी पहली फिल्म “कन्यादान” से शुरू मानी जाती है। इसके बाद “ममता गाबय गीत”, “जय बाबा बैद्यनाथ”, और “सस्ता जिनगी महँगा सिंदूर ” जैसी फिल्मों ने दर्शकों का ध्यान अपनी ओर खींचा।

उस दौर की फिल्मों में तकनीकी सुविधा कम, लेकिन भावनाएँ और लोक संस्कृति बेहद सशक्त थीं। कहानी गाँव की मिट्टी से जुड़ी हुई होती थी — प्रेम, समाज और परिवार की संवेदना से भरी हुई। उस समय निर्माता और कलाकार लाभ नहीं, बल्कि पहचान के लिए काम करते थे।

अब: तकनीक और नई सोच का युग

डिजिटल दौर ने मैथिली सिनेमा को एक नया जीवन दिया है।अब यूट्यूब, ओटीटी और सोशल मीडिया ने नई पीढ़ी के फिल्मकारों को मंच दिया है।जहां वह अपनी बात रख सकते हैं। “मिथिला मखान”, “प्रेमक बसात”, और “गाम घर” जैसी फिल्मों ने दिखाया कि मैथिली सिनेमा भी अब मुख्यधारा में जगह बना रहा है। विशेषकर “मिथिला मखान” को मिला राष्ट्रीय पुरस्कार, मैथिली सिनेमा के लिए ऐतिहासिक उपलब्धि रही।

कहानी और दर्शकों में बदलाव

अब की फिल्में सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि आधुनिक समाज के सवाल भी उठाती हैं। महिला सशक्तिकरण, प्रवासी जीवन, युवाओं की सोच और सामाजिक बदलाव पर आधारित कहानियाँ दर्शकों के दिल को छू रही हैं। अब तो नई पीढ़ी के निर्माता, निर्देशक और कलाकार मैथिली सिनेमा को नई ऊँचाइयों तक ले जाने का काम कर रहे हैं।

मिथिला के प्रति समर्पण की भावना

अब तक जिन्होंने मिथिला के लिए काम किया है, उन्होंने कभी लाभ या प्रसिद्धि की उम्मीद से नहीं किया। उनका एकमात्र उद्देश्य रहा — “मिथिला को पहचान मिले, उसकी संस्कृति और भाषा को सम्मान मिले।” जब साधन सीमित थे, मंच छोटे थे,तब भी उन्होंने अपने श्रम, समय और प्रतिभा को मिथिला के नाम समर्पित किया। उनके लिए सबसे बड़ा पुरस्कार यही था कि मिथिला की माटी, बोली और संस्कृति को ख्याति मिले।

अब बात करें चुनौतियाँ और उम्मीदों की तो आज भी सीमित बजट, प्रदर्शन मंचों की कमी और दर्शकों की उदासीनता बड़ी चुनौतियाँ हैं। लेकिन उम्मीदें पहले से कहीं ज़्यादा हैं। युवा फिल्मकार अब कहानी, तकनीक और प्रस्तुति — तीनों में प्रयोग कर रहे हैं।

अंततः हम देखते हैं की मैथिली सिनेमा की यात्रा संघर्ष से सम्मान तक की प्रेरक कहानी है। जहाँ पहले सवाल था “फिल्म बनेगी कैसे? ”अब सवाल है — “बेहतर फिल्म बने कैसे?

”यह बदलाव बताता है कि मैथिली सिनेमा अब सिर्फ क्षेत्रीय नहीं,बल्कि मिथिला की आत्मा और गौरव का प्रतीक बन चुका है।