कथा प्रारंभ जानू बाबू –

#MNN24X7 जानू बाबू का असली नाम जामुन झा था, पर घर में सब प्यार से “जानू” कहते। वो परिवार के सबसे छोटे बेटे थे। ऊपर तीन बड़े भाई, एक बहन — सबकी जिम्मेदारियां, घर की परंपराएं, और बुज़ुर्गों की उम्मीदें – सब जानू बाबू के कंधों पर।
बचपन से ही उन्हें सिखाया गया – “जानू, बड़े बोलते हैं तो चुप रहो”,
“जानू, तू सबसे छोटा है, सबका कहना मान।”
धीरे-धीरे “मानने” की आदत ने उन्हें इतना आज्ञाकारी बना दिया कि उनके अपने मन की आवाज़ कहीं पीछे छूट गई।

बोझ

जानू बाबू पढ़ाई में ठीक-ठाक थे। सरकारी नौकरी की तैयारी भी की, पर किस्मत हमेशा थोड़ी सी पीछे रह गई। घर के हालात और बड़ों की बातों ने उनका आत्मविश्वास धीरे-धीरे तोड़ दिया।
वो हमेशा दूसरों के दुःख में अपने को भूल जाते। कोई बीमार हो जाए, तो सबसे पहले दौड़ पड़ते;
किसी के घर में परेशानी हो, तो अपनी जमा पूंजी तक निकाल देते।
मगर उनके लिए किसी के पास कभी वक्त नहीं होता।
उनकी संवेदनशीलता, परिवार वालों की नज़र में कमजोरी बन गई।

उम्मीदें

समय आया, तो उनकी शादी संध्या नाम की शांत, सहनशील लड़की से हुई। संध्या ने सोचा था कि पति सरकारी कर्मचारी होंगे, स्थिर जीवन होगा।
मगर धीरे-धीरे उसे समझ में आया कि जानू बाबू तो “सबके लिए” जीने वाले व्यक्ति हैं — मगर “अपने लिए” नहीं। वो अपने बच्चों से ज़्यादा अपने भाइयों के बच्चों की फीस भर देते,
रिश्तेदारों की मदद में घर का राशन गिरवी रख देते। संध्या को दुख तो होता,
मगर वो जानती थी — उसका पति दिल से कमजोर है, पर इरादे से नेक।

टूटन

साल दर साल, जानू बाबू पर “घर का बोझ” बढ़ता गया।
जब भी कोई गलती होती, दोष उन्हीं पर आता।
“तू छोटा है न, इसलिए कोई काम सीधा नहीं होता,”
“तेरे बस का कुछ नहीं,
तू दूसरों के भरोसे रहता है,”
ऐसी बातें सुन-सुनकर वो भीतर से टूटने लगे।
कई बार सोचते — “क्या गलत हूँ मैं?”
मगर अगले ही पल कहते — “नहीं,
अगर मैं झुककर घर बचा सकता हूँ, तो शायद यही मेरा कर्म है।”

साज़िश

एक दिन बड़ा विवाद उठा — पैतृक संपत्ति का।
बड़े भाइयों ने चाल चली, और जानू बाबू पर झूठे आरोप लगाए कि उन्होंने कुछ रुपये अपने पास रख लिए हैं।
उनकी पत्नी रो पड़ी —
“आप क्यों चुप रहते हैं? सब आपको ही दोषी ठहराते हैं!”
जानू बाबू का गला भर आया —
“संध्या, अगर मैं बोलूंगा तो ये घर टूट जाएगा। और अगर चुप रहूं, तो मैं भीतर से टूट जाऊंगा।” बात बढ़ी, रिश्तेदार जुटे, अपमान हुआ, लेकिन जानू बाबू ने जवाब नहीं दिया।

जागृति

उस रात जानू बाबू देर तक छत पर बैठे रहे। आँखों में आँसू थे और मन में एक प्रश्न —
“क्या मेरी चुप्पी अब तक घर को जोड़ती रही, या धीरे-धीरे मुझे मिटा रही है?
”उन्हें एहसास हुआ — अगर उन्होंने खुद को नहीं संभाला, तो उनके बच्चे भी एक “झुकता हुआ पिता” देखकर झुकना सीख जाएंगे। उन्होंने तय किया —
“अब मैं अपनी पहचान खुद बनाऊँगा।”

सफर

अगले दिन उन्होंने पुराने संपर्कों को जोड़ा, छोटे-छोटे काम शुरू किए — ट्यूशन, प्राइवेट ऑफिस में क्लर्की, और बच्चों की पढ़ाई पर पूरा ध्यान। संध्या उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रही। धीरे-धीरे बच्चों ने सफलता पाई —
बड़ा बेटा इंजीनियर बना, बेटी अध्यापिका। जब सबको लगा कि जानू बाबू का जमाना खत्म हो गया है, तब उन्होंने “झुककर” नहीं, “टूटकर फिर से जुड़कर” अपना नाम रोशन कर दिया।

सफलता

वो ही बड़े भाई, जिन्होंने कभी उन्हें तुच्छ कहा था, अब उनके बच्चों की नौकरी में सिफारिश मांगने आए।
जानू बाबू मुस्कुराए —“रिश्ते तोड़ने से नहीं, समझ से बनते हैं। बस अब मैं झुकूंगा नहीं, लेकिन दूर भी नहीं रहूंगा।”
उनकी शांति, उनके आत्मबल ने पूरे परिवार को झकझोर दिया। धीरे-धीरे सबका रवैया बदला, और जानू बाबू का सम्मान वापस लौटा।

हद

समय के साथ सब स्थिर हो गया। एक दिन जानू बाबू अपनी पुरानी डायरी पढ़ रहे थे — पहले पन्ने पर लिखा था:
“रिश्ते बचाने के लिए झुकना अच्छा है,
मगर इतना नहीं कि खुद की पहचान मिट जाए।”
वो मुस्कुराए।
अब वो जान गए थे —
“झुकना विनम्रता है, लेकिन हर बार झुकना कमजोरी नहीं, बल्कि आत्मबल की परीक्षा है।”

संदेश

यह उपन्यास हमें सिखाता है — रिश्तों में मौन रहना तब तक अच्छा है,
जब तक वह सम्मान के साथ हो। पर जहाँ बार-बार साबित करना पड़े कि “आप गलत नहीं हैं,
” वहाँ दूरी ही सबसे बड़ी समझदारी है।