कहानी प्रारम्भ
#MNN24X7 धरमपुर गाँव की रात उस दिन कुछ अलग थी। गली-गली में झालरें टिमटिमा रही थीं, ढोल की थाप पर बच्चे उछल रहे थे, और बूढ़े रघुवीर चौधरी के चेहरे पर वर्षों बाद मुस्कान थी। उनका बेटा, आर्यन चौधरी, आखिरकार शादी कर रहा था।
गाँव के बीचोबीच बने छोटे से पंडाल में बारात की तैयारी चल रही थी। देवेंद्र उर्फ़ देवा ने सब कुछ संभाल रखा था—”रघुवीर काका, बस चिंता मत कीजिए… लड़की बहुत संस्कारी है, अनाथ है, माँ-बाप नहीं हैं, इसलिए ज्यादा खर्च आपको करना पड़ेगा। “रघुवीर ने थकी आँखों से मुस्कुरा कर हामी भर दी।आख़िर उनके बेटे के लिए यही मौका तो था खुशियों का।
रात के आठ बजे बारात सत्यनगर के बाहरी इलाके में पहुँची। दुल्हन का नाम था — अनन्या। घूंघट में छिपा चेहरा, आवाज़ में सिहरन सी मिठास। जब उसने पहली बार आर्यन की ओर देखा, तो आर्यन को लगा मानो किसी ने पूरे अंधेरे कमरे में दीया जला दिया हो।
शादी साधारण पर दिल को छू लेने वाली थी। देवा, उसकी “बहन” रितिका, और “बहनोई” अमन सबकुछ बड़े ठाठ से निभा रहे थे।
पर दुल्हन के चेहरे की हल्की बेचैनी, उसके हर बार घड़ी की ओर देखने की आदत —आर्यन के दिल में एक छोटा-सा सवाल छोड़ गई थी।
पहली परत
सुहागरात की सुबह आर्यन ने देखा, अनन्या कमरे में अकेली बैठी थी, आँखें भीगी हुईं। “क्या हुआ?” आर्यन ने पूछा।
वो बस बोली—“मुझे डर लगता है आर्यन, सब ठीक रहेगा ना? ”आर्यन ने उसका हाथ थाम लिया,“जब तक मैं हूँ, तुझे कोई छू भी नहीं सकता।”
वो मुस्कुराई — मगर वो मुस्कान जैसे किसी अदृश्य दर्द की परतों में गुम हो गई। उसे क्या पता था,
जिस हाथ को उसने थामा है,वही किसी खतरनाक जाल का सिरा है…
धरमपुर की सुबह उस दिन कुछ अजीब थी। आसमान पर हल्का कुहासा था, पर हवा में बेचैनी घुली थी। रघुवीर चौधरी बरामदे में चाय पी रहे थे,और आर्यन अपने खेत की ओर निकलने ही वाला था कि पीछे से उसकी मां ने पुकारा — “बहू कहां गई सुबह-सुबह?”
आर्यन ने मुड़कर देखा — कमरे का दरवाज़ा खुला था,लेकिन बिस्तर खाली।अलमारी का एक दराज़ खुला पड़ा था, और उसमें जहाँ जेवर रखे थे, वहाँ अब धूल थी।टेबल पर सिर्फ़ एक कागज़ का पन्ना पड़ा था —जिस पर लिखा था:
> “माफ़ करना आर्यन, मुझे जाना पड़ा।
जो दिखता है, वो हमेशा सच्चा नहीं होता…”
बस इतना।उसके नीचे कोई नाम नहीं।आर्यन के दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। वो बाहर भागा — लेकिन गली में किसी ने अनन्या को नहीं देखा था। देवा भी दो दिन पहले “कहीं बाहर काम” के बहाने से गायब था।
शाम तक जब सबने तलाश की, तो किसी को कुछ पता नहीं चला। तभी गांव के ही बुज़ुर्ग हरिनारायण जी बोले —“बेटा, लगता है तुझे वही गैंग फंसा गया है…ऐसे लोगों की खबरें मैंने अख़बार में पढ़ी हैं — शादी कराते हैं, फिर जेवर और नकदी लेकर भाग जाते हैं।”
आर्यन ने यक़ीन नहीं किया।
“नहीं बाबा, अनन्या ऐसी नहीं थी… उसकी आंखों में डर था, धोखा नहीं!”
रात के अंधेरे में आर्यन सत्यनगर थाने पहुंचा। वहाँ ड्यूटी पर इंस्पेक्टर अजय राणा थे। मजबूत कद-काठी, आंखों में सतर्कता — और चेहरे पर ऐसा भाव जैसे दुनिया का कोई राज़ उनसे छिपा नहीं।
“क्या हुआ?” आर्यन ने काँपती आवाज़ में सब कुछ बता दिया। अजय राणा ने ध्यान से सुना, फिर बोले —“तुम कहते हो लड़की का नाम अनन्या था… लेकिन पहचान पत्र या फोटो?”
आर्यन ने मोबाइल निकाला और शादी की तस्वीरें दिखाईं। अजय ने एक तस्वीर ज़ूम की —फिर कुर्सी से थोड़ा झुककर बोले — “यह लड़की सायरा परवीन है।
नूरगंज, बिहार की रहने वाली।
तीन राज्यों में इसी तरह के दो केस पहले दर्ज हो चुके हैं।”
आर्यन की आँखें फैल गईं।
“क्या मतलब? वो पहले भी…”
“हाँ,” राणा बोले, “वो गैंग का हिस्सा है। देवेंद्र, अमन, रितिका — सब शामिल हैं।शादी के बहाने भोले लोगों को फंसाते हैं, फिर सब सामान लेकर फरार।”
पर फिर अजय राणा ने एक बात और कही जो आर्यन के दिल में उतर गई —“लेकिन इस केस में कुछ अजीब है…”
“क्या?” “सायरा बाकी केसों में कभी खुद नहीं भागी, उसे हमेशा किसी ने उठाया था।”
आर्यन चौंक गया। “मतलब वो… किसी के दबाव में थी?” राणा ने धीमे स्वर में कहा —“हो सकता है। शायद वो अब भी किसी के शिकंजे में है।”
रात गहराती गई। बाहर बरसात शुरू हो चुकी थी। आर्यन के मन में अब डर नहीं था, बल्कि एक संकल्प था — वो सायरा को ढूंढेगा, चाहे इसके लिए उसे नूरगंज, बिहार तक क्यों न जाना पड़े।
और वहीं से शुरू होता है इस रहस्यमयी कहानी का अगला अध्याय —जहाँ आर्यन एक ऐसे गैंग के जाल में कदम रखता है जो शादी, धर्म और भावनाओं को अपने हथियार की तरह इस्तेमाल करता है।
दूसरी परत — नूरगंज की परछाइयाँ
सुबह का सूरज अभी पूरी तरह निकला भी नहीं था जब आर्यन चौधरी सत्यनगर से निकल पड़ा।
पीठ पर एक छोटा बैग, जेब में बस थोड़े पैसे,और दिल में वही सवाल —“सायरा ने ऐसा क्यों किया?”
ट्रेन कटिहार जंक्शन के प्लेटफ़ॉर्म पर रुकी। भारी उमस, चायवालों की आवाज़ें और स्टेशन पर दौड़ते यात्री —पर आर्यन के कानों में बस उसकी याद थी।
उसने ऑटो पकड़ा और नूरगंज की ओर चल पड़ा। यह गाँव वैसा ही था जैसा बिहार के किसी सुदूर इलाके में होता है — टूटी सड़कों, पुराने पीपल के पेड़ और हर घर में कोई अनकहा दर्द।
गाँव में पहली झलक
आर्यन ने एक चाय की दुकान पर रुककर पूछा,“भाईसाहब, यहाँ सायरा परवीन नाम की कोई लड़की रहती थी क्या?”
चायवाला थोड़ी देर तक उसे देखता रहा। फिर बोला — “तुम कौन हो?” “उसका पति… या कहो, होने वाला था।”
चायवाले ने गहरी साँस ली —
“भाई, सायरा यहाँ की नहीं रही अब। तीन साल पहले एक हादसे के बाद वो कहीं चली गई। लोग कहते हैं, उसे कुछ लोग बहला -फुसला कर ले गए थे।उसके अब्बा मोहम्मद शाहनवाज की भी उसी साल मौत हो गई थी।”
आर्यन का दिल जैसे बैठ गया।
वो समझ गया — सायरा शायद शिकार थी, अपराधी नहीं।
पुरानी मस्जिद के पीछे की गली
सायरा के घर का पता मिलते ही वह वहाँ पहुँचा।एक पुराना मकान, दीवारों पर दरारें, और दरवाज़े पर टूटा ताला।अंदर धूल भरा सन्नाटा था।पर कमरे के कोने में उसे एक पुराना ट्रंक मिला,जिसमें कुछ कपड़े, एक टूटी चूड़ी और एक डायरी रखी थी।डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था —
> “मैं सायरा हूँ।
मेरी ज़िंदगी अब मेरी नहीं रही।
मुझे जबरन उस रास्ते पर धकेला गया,जहाँ प्यार का नाम धोखे से जुड़ गया…”
आर्यन के हाथ काँपने लगे।
हर पन्ने पर दर्द था — किसी ‘अमन भाई’ और ‘देवा’ का ज़िक्र,और एक रहस्यमय नाम —
> “मलिक साहब।”
रहस्य का नया सिरा
आर्यन ने डायरी का आख़िरी पन्ना खोला —वहाँ लिखा था:
> “अगर कभी कोई मेरी सच्चाई जानना चाहे,
तो उसे भैरवपुर थाना के पास वाले पुराने गेस्टहाउस में देखना चाहिए। वहीं से सब शुरू हुआ था।”
आर्यन के मन में आग जल उठी।
वो जान चुका था कि सायरा की कहानी खत्म नहीं हुई —बल्कि वहीं से असली खेल शुरू हुआ था।
रात को वो भैरवपुर की ओर निकल पड़ा। सड़कें वीरान थीं, आसमान में बादल गहराने लगे थे।गेस्ट हाउस के टूटे फाटक से जब उसने कदम अंदर रखा, तो दरवाज़े के पीछे किसी ने अचानक टॉर्च की रोशनी मारी —
“कौन है वहाँ?”आवाज़ थी — इंस्पेक्टर अजय राणा की!
आर्यन चौंक गया।“आप यहाँ…?” अजय राणा बोला, “मैं तुम्हें ढूंढ ही रहा था आर्यन। लगता है तुम सही रास्ते पर आ गए हो। पर जो सच्चाई अब सामने आने वाली है…वो तुम्हारे लिए आसान नहीं होगी।”
मलिक साहब का खेल
भैरवपुर के उस पुराने गेस्टहाउस में सन्नाटा पसरा था। टूटी दीवारों पर लगी मकड़ी के जालों के बीच, एक खिड़की से आती टिमटिमाती रोशनी आर्यन और इंस्पेक्टर अजय राणा के चेहरों पर पड़ रही थी।
“यहाँ कुछ हुआ था…”
अजय ने धीमी आवाज़ में कहा,
“तीन साल पहले, इसी जगह से ‘मलिक साहब’ नाम के व्यक्ति ने अपना गिरोह शुरू किया था।
उसका काम था — गरीबी और धर्म दोनों का फायदा उठाकर
शादियों के नाम पर व्यापार करना।”
आर्यन चुप रहा। उसके सीने में जैसे पत्थर रखा था।“ और सायरा? ” उसने पूछा।
राणा की आँखें झुकीं, “सायरा… उस नेटवर्क की पहली शिकार थी।”
सायरा का अतीत
सायरा नूरगंज की थी। पिता सिलाई का काम करते थे, लेकिन कर्ज़ में डूबे थे।एक दिन शहर से आया आदमी। वही “मलिक साहब” —उससे वादा करता है कि सायरा को मॉडलिंग का काम दिलवाएगा। घर वालों को पैसे, और सायरा को नई ज़िंदगी।
कुछ महीनों बाद, सायरा को सच्चाई का पता चला — वो मॉडल नहीं, एक मोहरा बना दी गई थी। उसे सिखाया गया कि कैसे “अनन्या” बनकर शादी करनी है, कैसे मुस्कुराना है, कैसे चुप रहना है, और कैसे जेवर लेकर गायब हो जाना है।
हर बार किसी नई जगह, किसी नए नाम के साथ। हर बार एक नई “शादी” — और एक नया गुनाह, जिसमें उसका चेहरा, लेकिन उसकी रज़ामंदी नहीं थी।
सायरा भागना चाहती थी।
पर मलिक के आदमी उसे ढूंढ लाते,और कहते — “अगर भागी, तो तेरे अब्बा को मार देंगे।”
वो हर रात अपने अंदर मरती रही…जब तक कि एक दिन राज्य की सीमा पार, सत्यनगर में उसकी “शादी” आर्यन से कर दी गई।
अजय राणा ने ट्रंक से निकाले पुराने फाइलों की ओर इशारा किया —“यह देखो — हर केस में वही नाम, वही तरीका।सायरा हर बार वही लड़की, और पीछे वही नेटवर्क।”
आर्यन की आँखों से आँसू निकल पड़े।“वो मुझे छोड़कर नहीं भागी थी,उसे फिर से उठा लिया गया था, है ना?”
राणा ने सिर हिलाया। “हाँ, शायद उसी रात।गाँव में किसी ने देखा था — एक नीली गाड़ी आई थी।”
आर्यन ने टेबल पर रखा नक्शा देखा। गाड़ी का रूट आख़िरी बार मुक्तेश्वरपुर के जंगलों की ओर जाता पाया गया था।
राणा ने कहा,“वो ज़िंदा भी हो सकती है, और शायद… हमें ढूंढ भी रही हो।”
रात गहरी हो चली थी।
बरसात के बीच आर्यन और राणा ने गाड़ी मुक्तेश्वरपुर की ओर मोड़ दी। सड़कें सुनसान थीं।
पेड़ों की परछाइयाँ ऐसे हिल रही थीं, मानो कोई पीछा कर रहा हो।
तभी अचानक सामने,
पुराने कुएँ के पास एक परछाई नज़र आई —एक लड़की, भीगी साड़ी में, काँपती हुई।
“सायरा…”आर्यन की आवाज़ जैसे हवा में घुल गई।
वो धीरे-धीरे पीछे मुड़ी —चेहरा थका हुआ, आँखें डरी हुई,
लेकिन उनमें एक अजीब सी चमक थी…जैसे उसने मौत को पीछे छोड़ दिया हो।
“आर्यन…” उसने फुसफुसाया,
“तुम यहाँ क्यों आए? अब देर हो चुकी है…वो… वो लोग पास ही हैं…”
और तभी, दूर जंगल की दिशा से
तीन टॉर्च की रोशनी एक साथ चमकी —अमन, देवा और कुछ नकाबपोश लोग तेज़ी से उनकी ओर बढ़ रहे थे…
अंतिम रात
बरसात अब और तेज़ हो गई थी।
बिजलियाँ आसमान को फाड़ रही थीं, और हवा पेड़ों की शाखों को झकझोर रही थी।पुराने मुक्तेश्वरपुर के जंगल के बीच, आर्यन, सायरा और इंस्पेक्टर अजय राणा उस वीराने में खड़े थे —जहाँ मौत और रहस्य दोनों एक साथ मंडरा रहे थे।
सायरा काँप रही थी। उसका चेहरा पीला पड़ चुका था, होंठ सूखे,पर आँखों में वह दृढ़ता थी जो किसी ने पहले कभी नहीं देखी थी।
“आर्यन, तुम क्यों आए?” उसने फुसफुसाया।“तुम्हारे लिए,” आर्यन ने कहा,“क्योंकि अब यह सब खत्म करना ज़रूरी है।”
सायरा के होठों से सिसकी निकली —“ये लोग मुझे जाने नहीं देंगे, आर्यन। मलिक साहब सब जानता है… उसने मेरी हर सांस को कैद किया है।”
अजय राणा ने बंदूक संभाली —
“और आज उसे जवाब देना होगा।”
झाड़ियों के बीच से आवाज़ आई —“हट जाओ वहाँ से, वरना आख़िरी बार सूरज देख रहे हो!”
देवा, भारी-भरकम आदमी,सूट पहने, लेकिन चेहरे पर हिंसा का मुस्कान लिए —मलिक साहब।
“तो तुम ही हो वो लड़का?” मलिक ने आर्यन को देखा।
“जिसने हमारे बिज़नेस में आग लगाने की कोशिश की?”
आर्यन चुप था।सायरा ने मलिक की ओर देखा —“तुमने मेरी ज़िंदगी बर्बाद की, मलिक!”
मलिक ने ठंडी हँसी हँसी — “बर्बाद? नहीं सायरा, मैंने तुझे एक पहचान दी थी। तू वही करती थी जो मैं कहता था — क्योंकि तुझे डर था,तेरे अब्बा की लाश भी मैंने ही दफन कराई थी।”
सायरा के चेहरे से खून उतर गया। “मतलब… अब्बा की मौत…”“हाँ,” मलिक ने गर्व से कहा, “क्योंकि उन्होंने मुझे धोखा दिया था।”
आर्यन का खून खौल उठा। वह मलिक की ओर बढ़ा, पर दो नकाबपोशों ने उसे पकड़ लिया।
अजय राणा ने चेतावनी दी —
“हथियार नीचे रखो! पुलिस है यहाँ!”
मलिक हँस पड़ा, “पुलिस? यहाँ कौन देखेगा, जंगल है, रात है, और तू अकेला है, राणा!”
गोली चली —तेज़ आवाज़ गूंजी। एक पल को लगा जैसे सब खत्म हो गया।
पर जब धुआँ छँटा,अमन ज़मीन पर गिरा पड़ा था —गोली उसके कंधे में लगी थी।
सायरा ने उसी पल मौका देखकर
एक पत्थर उठाया और पीछे वाले आदमी के सिर पर दे मारा।
आर्यन ने झटके से खुद को छुड़ाया और मलिक पर टूट पड़ा।
बरसात, अंधेरा, और दो ज़िंदगियाँ — एक मुक्ति के लिए, दूसरी हवस के लिए — आपस में भिड़ गईं।
लड़ाई के बीच अचानक मलिक ने जेब से पिस्तौल निकाली और सायरा पर तान दी। “अगर मेरे साथ नहीं, तो किसी के साथ नहीं!”
गोली चली —आर्यन ने सायरा को धक्का देकर बचाया,पर खुद उसके कंधे में गोली लगी।
अजय राणा ने तुरंत निशाना साधा —“अब खत्म हुआ तेरा खेल, मलिक!”
दूसरी गोली चली —इस बार मलिक गिर पड़ा,उसकी आँखें खुली रह गईं, मानो अपने ही अंत पर यकीन न हुआ हो।
सायरा दौड़कर आर्यन के पास आई।“तुम्हें कुछ नहीं होगा, सुन रहे हो?”
आर्यन ने मुस्कराते हुए कहा —“अब मुझे सुकून है… क्योंकि अब तुम आज़ाद हो।”
उसकी हथेलियों में सायरा का चेहरा था, और आँखों में वही मासूम प्यार जो पहली मुलाकात में था।
बारिश में भीगते हुए दोनों वहीं बैठे रहे। किसी ने कुछ नहीं कहा।सिर्फ़ बारिश बोल रही थी…
मानो स्वर्ग भी उस रात रो पड़ा हो।
सुबह की पहली किरण जंगल के पेड़ों के बीच से गुज़री।पुलिस की गाड़ियाँ पहुँचीं, घायल आर्यन को अस्पताल ले जाया गया।सायरा ने आख़िरी बार पीछे मुड़कर देखा —वही जगह जहाँ उसकी ज़िंदगी कैद थी,अब राख बन चुकी थी।
इंस्पेक्टर अजय राणा ने फाइल बंद की और कहा,“सायरा, अब तू गवाह नहीं… तू कहानी की नायिका है। तेरे जैसे लोग ही दूसरों को ये सिखाते हैं कि डर की भी एक सीमा होती है।”
सायरा ने आकाश की ओर देखा,
और एक आँसू उसके गाल पर लुढ़क गया — लेकिन वह आँसू अब दर्द का नहीं, मुक्ति का था।
> “प्यार अगर सच्चा हो, तो वो डर को नहीं बढ़ाता…
उसे खत्म कर देता है।”
