कथा प्रारंभ

#MNN24X7 यह कहानी दो आत्माओं की है—सरजू झा और रूमा की। यह कहानी अधूरे प्रेम की नहीं, यह कहानी है पूरी जिंदगी निभाए गए प्रेम की। कर्तव्य और दिल के बीच पिसते दो लोग… एक ऐसा प्रेम… जो जीवनभर जिया गया लेकिन कभी पाया नहीं गया।

सत्यनगर का लोआर—एक ऐसा गाँव जिसे देखने वाला पहली बार में इसे साधारण समझ लेता, लेकिन अंदर तक उतरने वाला पाता कि इस गाँव की मिट्टी में सदियों की कहानियाँ दबकर भी साँस लेती हैं।

यहाँ की सुबहें किसी साधारण गाँव जैसी नहीं थीं। सूरज जब उगता तो ऐसा लगता जैसे वह आस‑पास के पहाड़ों, खेतों और पोखरों से अनुमति लेकर ही ऊपर उठता हो। हल्की पीली धूप जब खेतों में फैलती, तो गेहूँ की बालियाँ धीमे-धीमे झूमकर उसका स्वागत करतीं। हवा में घुली मिट्टी की महक किसी खोए सपने की तरह मन को खींच लेती।

गाँव अभी जागता नहीं था, पर कुछ लोग ऐसे थे जो नींद के पहले झटके के साथ ही उठ जाते। उन लोगों में एक नाम था— सरजू झा।

सरजू की सुबहें बाकी बच्चों से अलग थीं। वह दिन की पहली किरण के साथ उठकर दरवाजे पर रखे पीतल के लोटे में पानी भरता और बगीचे की तरफ चला जाता। बगीचा छोटा था, पर उसमें उसकी माँ के लगाए हुए तुलसी, नींबू और गुड़हल के पौधे थे। सरजू हर दिन उन पौधों को पानी देता और मन ही मन कुछ बातें करता—कभी सपनों की, कभी इच्छाओं की, और कभी उन भावनाओं की जिन्हें वह समझ तो पाता था, पर कह नहीं पाता था।

उसकी माँ हँसकर कहती— “बौआ, गाछे बिरिछ सं एतेक गप्प करब, तऽ लोक सब ल की बचत?”

पर सरजू बस मुस्कुरा देता। उसे नहीं पता था कि ये पानी बस पौधे ही नहीं, बल्कि उसके मन का वह कोना भी सींचे जा रहे हैं जहाँ किसी का नाम धीरे-धीरे उग रहा था—उमा।

उमा की सुबहें भी कम सुंदर नहीं थीं। वह अपने आँगन से गुजरती ठंडी हवा में बालों को उचकाती हुई चूल्हे के पास बैठती और माँ को रोटी बेलने में मदद करती। उसकी आवाज धीमी थी, पर इतनी मधुर कि लोग कहते— “उमा बोलती नहीं, गुनगुनाती है।”

दोनो के घर एक-दूसरे से दूर नहीं थे। इसलिए अक्सर ऐसा होता कि सुबह-सुबह जब उमा आँगन में पानी छिड़कती, सरजू दूर से गुजरते हुए उसे देख लेता। उमा भी उसे देखती, लेकिन आँखें तुरंत झुका लेती। उस झुकती नजर में जो लाज थी, वही दोनों के बीच पहली धुन थी—एक ऐसी धुन जिसे अभी शब्द नहीं मिले थे।

स्कूल का रास्ता दोनों के लिए एक ही था। मिट्टी की सँकरी पगडंडी जहाँ सुबह की ओस अभी तक चमकती रहती। दोनों अलग-अलग चलते, लेकिन दूरी कभी ज़्यादा नहीं होती। उमा हाथ में किताबों का गुच्छा दबाए तेज़-तेज़ कदम चलती, जबकि सरजू उसके पीछे थोड़ी दूरी बनाकर, लेकिन बराबर गति से चलता।

गाँव के तालाब के पास पहुँचते ही दोनों की चाल धीमी हो जाती। क्योंकि यही वह जगह थी जहाँ पहली बार दोनों ने बिना शब्दों के बात की थी। उस दिन उमा का स्लेट तालाब में गिर गया था, और सरजू ने बिना बोले उसे निकालकर दे दिया था।

उसके बाद उमा ने धीरे से कहा था— “धन्यवाद।”

यह सिर्फ एक शब्द था, पर सरजू के लिए यह एक पूरा वाक्य बन गया, जिसमें उसने अपना नाम भी जोड़ लिया—‘सरजू’।

धीरे-धीरे दोनों बड़े होते गए, पर पगडंडी वही रही। तालाब वही रहा। और वही रहा वह हल्का-सा खिंचाव जो दोनों को एक-दूसरे की तरफ खींचता रहता था।

उमा की हँसी आज भी सरजू के कानों में वैसे ही गूंजती थी, जैसे वर्षों पहले बरगद के पेड़ पर बैठी चिड़िया अचानक गा उठी हो।

गाँव वालों ने कभी आवाज नहीं उठाई, पर उनकी नजरें सब समझ लेती थीं। बस सरजू और उमा ही नहीं समझ पाए थे कि यह जो रोज का साथ है… यही किसी बड़े प्यार की शुरुआत है।

धीरे-धीरे दोनों बड़े हुए। स्कूल की पगडंडी कॉलेज की राह बन गई। पर एक चीज़ वही रही—दोनों की आँखों में चमक।

सरजू ने पहली बार महसूस किया कि— “उमा के बिना मेरा कोई दिन पूरा नहीं होता।”

उमा भी सरजू के आने की आहट पहचान लेती थी। लेकिन गाँव में लड़का-लड़की की दोस्ती को लोग जल्द ही बदनाम कर देते हैं। इसलिए दोनों मन के अंदर ही छुपकर एक-दूसरे को चाहने लगे।

मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन अचानक उमा की बड़ी बहन, कामिनी, की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। इस घटना के बाद उसके घर का माहौल टूट गया। बड़ी बहन के दो छोटी बेटियाँ थीं— जो अब अनाथ हो गई थी।

इस घटना से उमा की पूरी दुनिया ही बदल गई। बच्चियों को देखकर उसका दिल भर आया। वह कुछ सोच समझ ही नहीं पा रही थी। परिवार ने निर्णय लिया— “उमा ही इन बच्चियों को माँ का स्थान दे सकती है।”

सरजू कुछ नहीं कर सका। वह बस देखता रहा… और उसकी आँखों में खामोशी भरती गई।

उमा के लिए शादी—एक मजबूरी थी। उसकी शादी उसके जीजा बीएन ठाकुर से कर दी गई। उसी घर में जहाँ उसकी बहन थी…अब उसी घर में अब उमा पत्नी बनकर गई।

उमा के दिल में भारीपन था। उसने एक रात चुपके से आसमान की ओर देखकर कहा— “हे भगवन… यह मेरे लिए नहीं था… पर मैं बच्चियों को अकेला नहीं छोड़ सकती।”

सरजू ने सुना तो नहीं… पर महसूस जरूर किया।

शादी के बाद सरजू एकदम बदल गया। गाँव वालों ने बहुत समझाया— “सरजू, शादी कर लो…”

लेकिन उसका जवाब हमेशा एक ही था— “दिल खाली नहीं है, तो घर कैसे बसाऊँ।”

वह हर शाम उसी बरगद के पेड़ के नीचे जाता, जहाँ कभी उमा मुस्कुराती थी। उस पेड़ की छाँव अब उसके आँसू पोंछती थी।

उमा के घर में लोग उसे प्यार से रूमा कहने लगे। वह पाँच बच्चों और दो भतीजियों की माँ बनते-बनते अपने आप को भूल गई।

लेकिन उसके अंदर का एक कोना हमेशा खाली रहा— वहीं कोना जहाँ कभी सरजू रहता था।

विदेश्वर स्थान के मेले में एक दिन उमा की बचपन की सहेली मिली। उसने हँसकर पूछा— “रूमा, सरजू याद आता है?”

उमा मुस्कुराई—थकी हुई, पर सच्ची मुस्कान। फिर बोली— “हाँ… आता है। हम बहुत खुश थे… पर मैं लोगों को छोड़ नहीं सकती थी। मेरे पति अच्छे इंसान हैं। मगर… दिल तो बस एक बार ही प्यार करता है।”

यह बात किसी ने सरजू तक पहुंचाई। उस रात वह उसी बरगद के नीचे बैठा रहा… बस चुपचाप।

उधर उमा अपने घर-परिवार में रम गई। इधर सरजू अपने अकेलेपन में।

दोनों का संबंध अब सिर्फ यादों में था, पर यादें भी कभी-कभी इंसान के साथ जीवनभर चलती हैं।

एक दिन खबर आई— “रूमा अब नहीं रहीं।”

सरजू को लगा जैसे उसकी सारी दुनिया उसके नीचे से हिल गई हो। वह नदी किनारे गया, और उसी पानी में अपना प्रतिबिंब देखने लगा।

और धीमे से बोल उठा— “उमा… अब कोई इंतज़ार नहीं रहा।
एक बार ही प्यार होता है… और वह जीवनभर साथ रहता है।”

उस दिन पहली बार सरजू की आँखों से आँसू बहे… वह भी चुपचाप।

सरजू ने अपना बाकी जीवन उसी जगह बिताया,
जहाँ उमा की यादें थीं।

और गाँव के लोग कहते— “इन दोनों की कहानी मिलन की नहीं,
पर सच्चे प्रेम की सबसे बड़ी मिसाल है।”

उनका प्यार अधूरा होते हुए भी… अमर था।