#MNN@24X7 मारवाड़ी महाविद्यालय, दरभंगा के समाजशास्त्र विभाग द्वारा बिरसा मुंडा के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में “विचार के रूप में बिरसा मुंडा” विषयक एक दिवसीय ऑनलाइन विचारगोष्ठी आयोजन किया गया, जिसका उद्घाटन महाविद्यालय के प्रधानाचार्य डॉ दिलीप कुमार द्वारा किया गया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय संस्कृत विभाग के सह प्राध्यापक डॉ आर एन चौरसिया ने कहा कि बिरसा मुंडा व्यक्ति नहीं, बल्कि विचारधारा है जो हमें अत्याचार के विरुद्ध मजबूती से खड़ा होने तथा आगे बढ़ने का साहस प्रदान करता है। बिरसा मुंडा अपने 25 वर्ष के अल्प जीवनकाल में ही न केवल आदिवासियों एवं दलितों के मसीहा बने, बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी योद्धा भी बने। वे आदिवासियों के भगवान कहे जाते हैं।

डा चौरसिया ने कहा कि भारत में करीब 13% जनजाति आबादी है जो आज भी उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं। जरूरत है कि उनका समुचित विकास हो तथा उन्हें रोजी- रोजगार प्रदान किया जाए, ताकि वे समाज व सरकार विरोधी न होकर समाज की मुख्यधारा में आ सकें। बिरसा मुंडा की जयंती को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने की सरकार की घोषणा उनके महत्व को रेखांकित करता है।

मुख्य अतिथि के रूप में ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय की उपकुलसचिव द्वितीय डॉ दिव्या रानी हंसदा ने कहा कि समय की आवश्यकता है कि अब दीन-हीन दशा के चित्रण के स्थान पर महापुरुषों के योगदान एवं संघर्ष से प्रेरणा लेते हुए अग्रसर होवें। उन्होंने बिरसा मुंडा के जीवन के बारे में कई सूक्ष्म तथ्यों को स्पष्ट करते हुए आदिवासी गौरव दिवस की बधाइयाँ प्रेषित की। आधुनिक काल में भी आदिवासियों की काफी समस्याएं हैं, जिन्हें शीघ्र दूर करने की आवश्यकता है।

विषय प्रवेश कराते हुए महाविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉ विकास सिंह ने कहा कि छोटानागपुर में सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र के रूप में बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर, 1875 को रांची के खूंटी जिले के उलीहातू गाँव में हुआ। सन् 1894 में छोटानागपुर में अपर्याप्त वर्षा के कारण भयंकर अकाल और महामारी फैली। अकाल की परिस्थिति होते हुए भी अंग्रेज अपना सरकारी खजाना भरने को उतावले रहते थे।

1882 के इंडियन फारेस्ट एक्ट ने आदिवासियों के जंगल छीन लिया था और अकाल की जटिल परिस्थितियों को देखते हुए भी राजस्व और लगन में कोई छूट नहीं दी। तब इन्हीं जटिल और गैर- मानवीय परिस्थितियों के खिलाफ 1अक्टूबर, 1894 को सभी मुंडाओं को एकत्र करके अंग्रेजों से लगान माफ़ी के लिए बिरसा मुंडा ने आन्दोलन किया। अंग्रेजों ने 1895 में बिरसा मुंडा को भी गिरफ्तार करके हजारीबाग केन्द्रीय कारगर में दो वर्ष कारावास की सजा दे दी।

लेकिन धरती आबा मुंडाओं में चेतना की जो चिंगारी लगा चुके थे, वह अब आम लोगों तक पहुँच चुकी थी। परिणामवश छोटानागपुर में बिरसा मुंडा के प्रभाव से मुंडा संगठित होने लगे। इसी तरह आगे 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच तीन युद्ध हुए। राँची कारागार में बंद रहते हुए ही बिरसा मुंडा 9 जून, 1900 को शहीद हो गये। बिरसा मुंडा ने ‘अबुआ दिशुम, अबुआ राज’ के नारे के साथ अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अपने समाज के अधिकार की संकल्पना को निर्मित किया, जिसे बाद में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में स्वराज और स्वाधीनता के नाम से समाहित किया गया।

विचारगोष्ठी में महाविद्यालय के विभिन्न विभागों के प्राध्यापकों ने अपनी बात रखी। वक्ताओं में अर्थशास्त्र विभागाध्यक्ष एवं सह प्राध्यापक डॉ विनोद बैठा, भूगोल विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ संजय कुमार, हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ अनुरुद्ध सिंह एवं विभाग के ही सहायक प्राध्यापक डॉ गजेन्द्र भारद्वाज, राजनीति विज्ञान विभागाध्यक्ष गंगेश कुमार झा, इतिहास विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ फारुख आज़म थे।

विचारगोष्ठी की संयोजिका एवं समाजशास्त्र विभागाध्यक्षा डॉ सुनीता कुमारी ने संचालन करते हुए कहा कि बिरसा उस भारत के भव्य इतिहास की परम्परा के निर्वाहक हैं, जिसके साक्षी विशाल हिमालय से लेकर वन, पर्वत, नदी और झरने हैं। बिरसा केवल नाम नहीं, अपितु जाग्रत भारत का अग्रदूत हैं। राजनीति विज्ञान विभाग के सहायक प्राध्यापक डॉ रवि कुमार राम ने कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन किया।