#MNN24X7 कथा प्रारंभ
प्रतापपुर के पूरब में एक पगडंडी है—धूप में फटी, बारिश में कीचड़ में लथपथ, हवा चलने पर धूल उड़ाती हुई। सत्यनगर के लोग इसे “भाग्य-मार्ग” कहते थे; क्योंकि यही वह रास्ता था जिसके सहारे गाँव के सपने शहर की ओर उड़ान भरते, और इसी से लौटकर थकान, निराशा और टूटे मन वाले चेहरे घर पहुँचते।

पगडंडी के उसी किनारे बसता था रविकांत झा का परिवार—पत्नी सुमन, बूढ़े लाल कक्का और बच्चा कक्का, और उनका मासूम बेटा सरैज।
घर साधारण था, पर उम्मीदें बड़ी।

रविकांत सत्यनगर का तेज़तर्रार लड़का। स्कूल के मास्टर अक्सर कहते—
“ई बउआ के माथा में पूरा दुनिया बसल छै।”

इंजीनियर का सपना देखा, फिर डॉक्टर बनने की राह चुनी। NEET में 98 परसेंटाइल हासिल कर लौटा, तो सुमन ने दही-चीनी परोस दी, और बच्चा कक्का गर्व से बोले—
“सत्यनगर के झा सबहक नाक तऽ उँच भ’ गेल आइ।”

लेकिन खुशियों की उम्र छोटी निकली।
काउंसलिंग बोर्ड पर लाल अक्षरों में चमकता वाक्य—
“आपकी श्रेणी में सीट उपलब्ध नहीं।”
रविकांत की आँखों में जलता सवाल—
“मेहनत कम थी या मैं गलत घर में पैदा हुआ?”

लाल कक्का ने अपने जीवन की अंतिम जमा-पूँजी—प्रतापपुर की तीन कट्ठा उपजाऊ ज़मीन—बेच दी।
अब 70 लाख की फीस वाला निजी कॉलेज ही रास्ता था।
सुमन हर रात आँचल से आँसू पोंछकर बस इतना कहती—
“पढ़ो बाबू… तुम ही हमारे दिन बदलोगे।”

सरैज छोटा था, पर घर की तंगी वह भी महसूस कर लेता।
दूध आधा होने लगा,
दीया देर से जलने लगा,
और लाल कक्का की ठोढ़ी पर थकान की रेखाएँ गहरी होती गईं।
वह धीरे से पूछता—
“माँ, हम्मर घर में ई कीये भ’ रहल छै?”

सुमन मुस्कान ओढ़ लेती—
“किछु नै बऊआ… बस उम्मीद कनी महँग पड़ल।”

उधर रविकांत का बड़ा भाई विनोद—सरकारी दफ़्तर का सीधा और ईमानदार कर्मचारी।
एक दिन उन्होंने बस इतना ही कहा—
“भाई, बात दबंगई से मत कहिए।”
बस, यही अपराध था।
अगले दिन उन पर जबरन आरोप,
लाठियाँ,
मुकदमा,
नौकरी खत्म।
और सम्मान? बहुत पहले जा चुका था।

दो साल की भागदौड़ के बाद जब प्रतापपुर लौटे,
सरैज ने पूछा—
“चाचा, ऑफिस अच्छा नहीं था क्या?”

विनोद टूटे स्वर में बोले—
“बऊआ… कुछ जगह हम जैसे लोगों के लिए नहीं बनल।”

अब वह सत्यनगर चौक पर ऑटो चलाते थे—शिकायतों से नहीं, पर भीतर से टूटे हुए।

हर शाम बच्चा कक्का चौकी पर बैठ जाते।
सरैज उनके पास जाकर पूछता—
“कक्का, ई सब हमरा संगे कीये भ’ रहल छै?”

कक्का धीरे से जवाब देते—
“जब न्याय ताकत के घर में रहै छै,
और नीति किताब से नहीं, डर से बनै छै,
तब मेहनत करने वाला आदमी हमेशा खाली हाथ रहै छै, बेटा।”

उनकी आँखें नम हो जातीं।

एक रात लाल कक्का ने सबको बुलाया।
सत्यनगर की हवा भारी थी।
उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा—

“बऊआ… समय बदलबाक रहे तखन
आवाज़ उठाऊ,
नै तऽ चुप्पा ओछैना तैयार कऽ लिय।
चुप रहला सं सदैव हारि नुकैल रहै छै।”

उस रात रविकांत ने किताबें बंद कर दीं,
विनोद ने ऑटो की चाबी मेज़ पर रख दी,
और सरैज दादी का आँचल कसकर पकड़ लिया।

सत्यनगर की सूखी पगडंडी पर एक नया संकल्प जन्मा—
“सहन से बेहतर है अधिकार माँगना। चुप्पी से बेहतर है सच बोलना।”

और इसी संकल्प ने बदलाव के बीज बोये।

समय बदला।
रविकांत की मेहनत रंग लाई।
सुमन की आँखों से आँसू हटे और मुस्कान लौट आई।
बच्चा कक्का की सीख अब पूरे गाँव की रोशनी बन चुकी थी।

आज भी पगडंडी धूप में फटती है,
बारिश में भीगती है,
पर अब उसकी मिट्टी में नया विश्वास उग आया है।

क्योंकि सत्यनगर का एक परिवार चुप्पी की परंपरा को तोड़कर अपने अधिकारों के लिए खड़ा हुआ—
और जब पहला कदम उठता है,
तभी सूखी पगडंडी पर हरी घास उगती है।