कविता के साथ संगीत के जुड़ने से जनमानस में उत्पन्न होता है अधिक भावात्मक लगाव- प्रधानाचार्य।
हिन्दी- काव्य की काव्यात्मकता एवं संगीतात्मकता व्यक्ति में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम- डा अविनाश।
#MNN@24X7 दरभंगा, हिन्दी काल- परंपरा अत्यंत लंबी है, जिसमें पहले से ही संगीतात्मकता दिखती है जो भक्तिकाल में ज्यादा बढ़ गई।19वीं सदी के पहले और बाद के हिन्दी काव्य के स्वरूप में काफी बदलाव आया। हिन्दी को प्रारंभ से ही लोकभाषा का बड़ा आधार मिला, जिसमें लोकभाषाओं के शब्दों के आने से गीतात्मकता का आना स्वभाविक ही है। उक्त बातें सी एम कॉलेज, दरभंगा के हिन्दी विभाग के तत्वावधान में “हिन्दी काव्य- परंपरा में संगीतात्मकता” विषयक कार्यशाला ने मुख्य वक्ता के रूप में महाविद्यालय के पूर्व हिन्दी- प्राध्यापक डा अविनाशचन्द्र मिश्र ने कही।
उन्होंने कहा कि हिन्दी- काव्य की काव्यात्मकता एवं संगीतात्मकता व्यक्ति में सकारात्मक परिवर्तन लाने में सक्षम है। विद्यापति, जयदेव, मीरा, सूर व तुलसी आदि के काव्य संगीतात्मकता के कारण ही अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। वहीं सूफी संतों की रचनायें गीतात्मकता के कारण ही अधिक प्रभावकारी एवं लोकप्रिय हुआ। उन्होंने कहा कि यदि रामकथा वाचक भी पदों को गाते हैं तो वे अधिक लोकप्रिय हो जाते हैं।
अध्यक्षीय संबोधन में प्रधानाचार्य डा अशोक कुमार पोद्दार ने कहा कि कविता के साथ संगीत के जुड़ने से जनमानस में अधिक भावात्मक लगाव उत्पन्न होता है। संगीत के माध्यम से शब्द दिलों कि अधिक गहराई तक पहुंचते हैं। हिन्दी अत्यंत समृद्ध भाषा है,जिसकी स्थिति काफी मजबूत हुई है। ज्ञानार्जन में भाषा कोई बाधक नहीं हो सकती। हमें सिर्फ अंग्रेजी की औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलने की जरूरत है। डॉ पोद्दार ने कार्यशाला आयोजन के लिए हिन्दी विभाग एवं हिन्दी साहित्य परिषद्, सी एम कॉलेज के सदस्यों को बधाई एवं धन्यवाद दिया।
विशिष्ट अतिथि के रूप में विश्वविद्यालय संस्कृत विभाग के प्राध्यापक डा आर एन चौरसिया ने कहा कि भक्ति का एक सशक्त माध्यम संगीत हमारे मन- मस्तिष्क तथा व्यवहार को सकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। संगीतात्मक हिन्दी- काव्य हर तरह के व्यक्ति को सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक रूप से सर्वाधिक प्रभावित करता है। ऐसे काव्यों की रचना एवं श्रवण से सामाजिक समरसता मजबूत होती है और आलस्य, ईर्ष्या, द्वेष, भय, निराशा तथा क्रोध आदि नकारात्मक भाव भी दूर होते हैं। इनमें संप्रेषणीयता की क्षमता अधिक होती है जो एक मानव को दूसरे से जोड़ता है।
विशिष्ट वक्ता के रूप में आकाशवाणी की कलाकार एवं संगीतज्ञ डा रागिनी ने कहा कि हमें ज्ञानार्जन कर उन लोगों तक पहुंचाना चाहिए जो सामर्थ्यवान नहीं हैं। संगीत में गायन, वादन एवं नृत्य समाहित होते हैं। इस अवसर पर उन्होंने तोरे मिलन की आस लगे रे पिया…., बीते दिन कब आने वाले…. तथा तेरे बिना मेरा जग अंधियारा…. आदि अनेक शास्त्रीय एवं लोकगीतों का कर्णप्रिय गायन किया, जिनका तबलावादक के रूप में ऋग्वेद झा ने भरपूर सहयोग किया।
हिन्दी के प्राध्यापक डा अभिषेक सिंह ने कहा कि साहित्य, संगीत व कला के बिना कोई मानव नहीं हो सकता। गीतात्मक कव्यों में रस, आनंद एवं अनुभूति ज्यादा होती है। कालजयी कविता के लिए गीतात्मकता, लोकात्मकता के साथ ही गहरी अनुभूति का होना भी आवश्यक है।
कार्यशाला में डा प्रभात कुमार चौधरी, डा अब्दुल हई, डा रूपेन्द्र झा, डा मीनाक्षी राणा, डा अखिलेश कुमार विभू, प्रो संजीव कुमार, डा सऊद आलम, प्रो विकास कुमार, डा फैजान हैदर, डा तनिमा कुमारी, डा शांभवी, डा इब्राहिम, डा उम्मे सलम, अमरजीत कुमार, जूही झा तथा मनजीत कुमार चौधरी सहित 125 से अधिक व्यक्ति उपस्थित थे, जिन्हें प्रमाण पत्र प्रदान किया गया।
अतिथियों का स्वागत बुके एवं स्मृतिचिह्न से किया गया।कॉलेज के सेमिनार हॉल में आयोजित कार्यशाला में अतिथियों का स्वागत एवं कार्यक्रम का संचालन कार्यशाला की संयोजिका डा रीता दुबे ने किया, जबकि धन्यवाद ज्ञापन हिन्दी- प्राध्यापक डा आलोक कुमार राय ने किया।