#MNN@24X7 दरभंगा, डॉ. अम्बेडकर एक गतिमान विचार की तरह लोगों की निगाह में निरंतर बदलते जा रहे हैं और यही उनके जिंदा होने का सबूत है। उनकी संभावनाएं ही नहीं उनकी सीमाएं भी स्पष्ट होती जा रही हैं। उनके प्रशंसक भी बदलते जा रहे हैं और उनके आलोचक भी। जिंदगी का कोई ऐसा पहलू नहीं है जिसे डॉ. अंबेडकर के विचारों ने छुआ न हो। जिस तरह एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में विभिन्न प्रकार के प्रयोग करके अपने निष्कर्षों का प्रतिपादन करता है उसी तरह डॉ. अंबेडकर ने भारतीय समाज रूपी प्रयोगशाला में अनूठे प्रयोग किए और नए विचारों का प्रतिपादन किया।

कोई व्यक्ति जन्म से महान नहीं होता, यह महानता उसे अपने जीवन में त्याग और परिश्रम की भारी पूँजी लगाकर प्राप्त करनी होती है। डॉ. अंबेडकर के जीवन की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। बेहद विपरीत परिस्थितियों में जीवन यात्रा तय करने वाले डॉ. अंबेडकर कैसे एक बड़े समाज के मुक्तिदाता के रूप में सामने आते हैं? यह जानना बेहद रोचक है।

डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को इंदौर के पास स्थित महू नामक छावनी कस्बे में महार जाति में हुआ। महार दूसरे अस्पृश्य समुदायों के मुकाबले ज्यादा साधनहीन थे मगर वे सामाजिक रूप से ज्यादा गतिशील थे। बचपन में ही अंबेडकर का सामना अस्पृश्यता रूपी कलंक से हुआ। अंबेडकर के बालमन पर इन बातों का बहुत प्रभाव पड़ा कि आखिर कोई नाई इनका बाल क्यों नहीं बनाना चाहता है? आखिर क्यों कोई गाड़ीवान अपनी गाड़ी से ले जाने के लिए उनको तैयार नहीं है? क्यों उन्हें किसी भी कुएं से पानी पीने को नहीं मिल रहा है? डॉ. अंबेडकर का उदय उस अपमानजनक सामाजिक व्यवस्था में होता है, जहां मनुष्य असमानता और मानसिक जकड़न की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है।

बचपन से ही मेधावी अंबेडकर की प्राथमिक शिक्षा छावनी के प्राथमिक विद्यालय से हुई और उन्होंने सतारा में भी अध्ययन किया। बाद में उनके पिता मुंबई आ गए तो उन्होंने एलफिंस्टन कॉलेज में दाखिला लिया। उन्होंने न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल की और फिर 1916 में वे लंदन के लिए रवाना हो गए जहां उन्हें कानून की पढ़ाई के लिए ग्रेज इन में दाखिला मिल गया। कोलंबिया में वह अपने दो प्रोफेसरों- जॉन ड्यूवी और आर. ए. सेलीग्मान से खासतौर से प्रभावित हुए। डॉ. अंबेडकर के विचारों पर गौतम बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले का प्रभाव स्पष्ट रूप से था और वे इस बात को हमेशा स्वीकार भी करते रहे। कबीर ने उन्हें भक्ति मार्ग दिखाया तो ज्योतिबा फुले से उन्हें संघर्ष की प्रेरणा मिली। बुद्ध ने उन्हें मानसिक शांति और समता का संदेश दिया। उन्हीं के आदर्शों पर चलकर उन्होंने सामूहिक धर्म परिवर्तन किया।

वे 1917 में वे लंदन से भारत आ गए। 1917 में भारत लौटने पर उन्हें बड़ौदा महाराजा के सैन्य सचिव के रूप में नौकरी मिली। बड़ौदा में अपनी वास्तविक पहचान के आधार पर डॉ. अंबेडकर को रहने के लिए जगह तक नहीं मिल पायी। इस अपमानजनक अनुभव ने डॉ. अंबेडकर की अंतरात्मा को गहरे तौर पर प्रभावित किया। यहां से अंबेडकर एक राजनीतिक योद्धा के रूप में नया अवतार ग्रहण करते हैं।
वर्ष 1920 में उन्होंने कोल्हापुर के महाराजा शाहू महाराज की आर्थिक सहायता से ‛मूकनायक’ नामक एक जर्नल की शुरुआत की। 1921 में उन्होंने मास्टर आफ साइंस की डिग्री हासिल की और अगले साल ‛दि प्रॉब्लम ऑफ रुपी’ शीर्षक के तहत अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया। इसके बाद वे भारत लौटे और मुंबई में वकालत की शुरुआत की और यहीं से सार्वजनिक जीवन में उनके कड़वाहट भरे दिनों की शुरुआत हुई। डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में छेड़ा गया सामाजिक आंदोलन का सफर बेहद लंबा रहा।

जुलाई 1924 में उन्होंने ‛बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ का गठन किया। डॉ. अंबेडकर ने आत्मसम्मान की रक्षा हेतु संपूर्ण दलित वर्ग से संघर्ष का आह्वान किया। 20 मार्च 1927 को महाड़ में दलितों का विशाल सम्मेलन हुआ। इसमें लगभग दस हजार प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. अंबेडकर ने दलित चेतना को जगाने का कार्य किया। उन्होंने ऊंच और नीच के भाव को खत्म करने का आह्वान करते हुए दलितों से अपने पैरों पर खड़ा होने व स्वयं चेतना से स्वाभिमान और स्वआदर पैदा करने की बात कही। 29 जून 1928 से डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व तथा मार्गदर्शन में ‛समता’ नामक पाक्षिक प्रारंभ हुआ। मई 1930 में डॉ. अंबेडकर ने नासिक के कालाराम मंदिर में अछूत प्रवेश का आंदोलन खड़ा किया। डॉ. अंबेडकर ने स्वयं इस सत्याग्रह की अगुवाई की। 1930 के दशक में डॉ. अंबेडकर ने अंग्रेजों से मांग की कि अस्पृश्यों को पृथक निर्वाचक मंडल का अधिकार दिया जाए। ब्रिटिश सरकार ने उनकी मांग को आंशिक सहमति दी लेकिन महात्मा गांधी के अनशन के फलस्वरुप डॉ. अंबेडकर को पृथक निर्वाचन मंडल की अपनी मांग छोड़नी पड़ी और 24 सितंबर 1932 को पूना पैक्ट पर उन्होंने हस्ताक्षर किया।

1936 में अंबेडकर ने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी ‛इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ का गठन किया। 1942 में उन्होंने ‛शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ के नाम से एक नए संगठन का गठन भी किया। 1942 में डॉ. अंबेडकर वायसराय की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य बने। डॉ. अंबेडकर के मार्गदर्शन में एक नई औद्योगिक संस्कृति तथा मजदूरों के हितों की सुरक्षा के अभियान की शुरुआत होती है। अप्रैल 1944 में उन्होंने एक विधेयक प्रस्तुत किया। इसके अनुसार मजदूरों को वेतन सहित अवकाश देने का प्रावधान किया गया था। एक तरह से डॉ. अंबेडकर ने ही भारत में मजदूर आंदोलन की नींव रखी।

एक नेतृत्वकर्ता के रूप में डॉ. अंबेडकर एक उद्देश्य से दूसरे उद्देश्य की ओर बेहद सधे तरीके से कदम बढ़ाते हैं। सबसे पहले उन्होंने अस्पृश्य समाज को सुधारने का प्रयास किया ताकि बहुसंख्यक हिंदू समाज में उन्हें मान्यता मिल सके। तीस के दशक में वे राजनीति में दाखिल होकर प्रतिनिधित्व प्राप्ति की दिशा में प्रयास करते हैं।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान डॉ आंबेडकर वंचित वर्ग के नायक के रूप में राष्ट्रीय परिदृश्य में आते हैं। 3 अगस्त, 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अपनी सरकार में विधि मंत्री के रूप में नियुक्त किया और 3 सप्ताह बाद 29 अगस्त को उन्हें संविधान की प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। डॉ. अंबेडकर इस प्रकार से भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में सामने आते हैं। डॉ. अंबेडकर ने संविधान में सामाजिक सुधारों से संबंधित विशिष्ट प्रावधान किए जो भारतीय समाज के बदलाव के वाहक बने। डॉ. अंबेडकर ने दीर्घकालिक सुधारों पर बल दिया और हिंदू कोड बिल के माध्यम से आवश्यक सुधार की कोशिश की। अपनी मांग पर उचित कार्रवाई न होते देख सितंबर, 1952 में डॉ. अंबेडकर ने सरकार से इस्तीफा दे दिया। जीवन के अंतिम दिनों में उनका झुकाव बौद्ध धर्म की तरफ हुआ और 14 अक्टूबर को दशहरा के महत्वपूर्ण हिंदू पर्व के दिन नागपुर में विशाल जनसमूह के सामने उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। 6 दिसंबर 1956 को वंचित समुदाय के इस महानायक का देहांत हो गया।

डॉ. अंबेडकर अपने समकालीन चिंतकों की तरह मात्र किताबी ज्ञान पर ही आधारित नहीं थे। अपितु भारतीय एवं विदेशी शिक्षा के उच्च स्तरीय बौद्धिक ज्ञान के अद्वितीय संगम एवं सामाजिक आंदोलनों के नेता और समाज सुधार की भूमिका निभाने के दौरान प्राप्त व्यवहारिक ज्ञान की देन थे। इसके साथ-साथ भारतीय संविधान के रचयिता के रूप में भी उन्होंने राष्ट्र की सेवा से भी अनुभव ग्रहण किया। अंत में वे एक धार्मिक सन्यासी बने और अपने लाखों अनुयायियों के साथ स्वयं अपने धर्म बौद्ध में वापस आ गए। डॉ. अंबेडकर के विचारों का सबसे अहम पहलू यह है कि उन्होंने अपने ज्ञान को केवल मौखिक परंपरा के माध्यम से ही नहीं रचा अर्थात सार्वजनिक रूप से अपने दल के लोगों या अनुयायियों को भाषण देना ही नहीं बल्कि उन्होंने अनुसंधान किया और अपने ज्ञान को लिखित रूप में प्रकाशित किया।
डॉ. अंबेडकर ने हिंदू धर्म दर्शन का गहराई से अध्ययन किया। डॉ. अंबेडकर ने अपनी पुस्तकों तथा लेखों में हिंदू धर्म का ऐतिहासिक विश्लेषण किया और हिंदू धर्म में व्याप्त कुरीतियों के संदर्भ में साक्ष्य भी प्रस्तुत किया।

डॉ. अंबेडकर धर्म दर्शन के विभिन्न आयामों का विश्लेषण करते हुए हिंदुत्व के दर्शन की व्याख्या करते हैं। डॉ. अंबेडकर हिंदू धर्म के दर्शन का परीक्षण करने के लिए न्याय की कसौटी तथा उपयुक्तता की कसौटी पर इसे परखते हैं। उनका मानना है कि न्याय का सिद्धांत एक सारभूत सिद्धांत है और उसमें लगभग उन सभी सिद्धांतों का समावेश है जो नैतिक व्यवस्था का आधार बने हैं। न्याय ने सदा ही समानता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है और निष्पक्षता से समानता उभरी है।

डॉ. अंबेडकर हिंदू धर्म का मूल्यांकन करते हुए बताते हैं कि जातीय श्रेष्ठता के भाव की वजह से हिंदू धर्म क्षमता आधारित समाज बनने में विफल रहा है।

अंबेडकर ने समाज के अस्पृश्य, उपेक्षित तथा सदियों से सामाजिक शोषण से त्रस्त दलित वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य ही नहीं किया बल्कि उनका पूरा जीवन समाज में व्याप्त रूढ़ियों और अंधविश्वास पर आधारित संकीर्णताओं और विकृतियों को दूर करने पर भी केंद्रित रहा।

डॉ. अंबेडकर भारत में एक ऐसे वर्गविहीन समाज की संरचना चाहते थे जिसमें जातिवाद, वर्गवाद, संप्रदायवाद तथा ऊंच-नीच का भेद न हो और प्रत्येक मनुष्य अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए स्वाभिमान और सम्मानपूर्ण जीवन जी सके।
अस्पृश्यता उन्मूलन के लिए उन्होंने न सिर्फ संघर्ष किया बल्कि संविधान में इसके निवारण के लिए स्पष्ट प्रावधान भी किया। वे मानव समाज को चुनौती देते हुए कहते हैं कि “यह दायित्व इस दुनिया का है कि वह सभी पिछड़े लोगों के साथ दलितों की जंजीरे तोड़कर उन्हें स्वतंत्र करें ।” डॉक्टर अंबेडकर ने तत्कालीन विचारों को खारिज करते हुए तर्क दिया कि “ टूटे-फूटे मकान की रंगाई पुताई करके उसकी दुर्दशा को छिपा तो सकते हैं लेकिन सुधार नहीं सकते। ऐसी हालत में उसे गिरा कर नया मकान बनाना ही उपयुक्त होगा। ” अंबेडकर के अनुसार अस्पृश्यता की जड़े हिंदू वर्ण व्यवस्था में निहित हैं। अतः इस कुप्रथा को मिटाने के लिए वर्ण व्यवस्था का अंत जरूरी है। डॉक्टर अंबेडकर ने शासन की संस्थाओं में दलित वर्गों के उचित और पर्याप्त प्रतिनिधित्व पर बल दिया और सामूहिक भोज तथा अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया।

डॉ. अंबेडकर महिलाओं की उन्नति के प्रबल पक्षधर थे। उनका मानना था कि किसी भी समाज का मूल्यांकन इस बात से किया जाता है कि उसमें महिलाओं की क्या स्थिति है? दुनिया की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है, इसलिए जब तक उनका समुचित विकास नहीं होता कोई भी देश चहुंमुखी विकास नहीं कर सकता।

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए दो मुख्य अखबारों की स्थापना भी की थी। ‘मूकनायक’ और ‘बहिष्कृत भारत’ नामक ये अखबार महिला सशक्तिकरण का मुख्य केंद्र थे। 18 जुलाई 1927 को करीब तीन हजार महिलाओं की एक संगोष्ठि में बाबा साहब ने कहा था कि आप अपने बच्चों को स्कूल भेजिए। शिक्षा महिलाओं के लिए भी उतनी ही जरूरी है जितना की पुरूषों के लिए। यदि आपको लिखना-पढ़ना आता है, तो समाज में आपका उद्धार संभव है।

5 फरवरी 1951 को डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संसद में ‘हिंदू कोड बिल’ पेश किया। इसका मकसद हिंदू महिलाओं को सामाजिक शोषण से आजाद कराना और पुरुषों के बराबर अधिकार दिलाना था।

डॉ. अंबेडकर के विचार उदारवादी एवं लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं। उदारवादी अवधारणा की तरह डॉ. अंबेडकर व्यक्ति की गरिमा को महत्व देते हैं लेकिन राज्य के अहस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करते हैं। वह समाजवादी राज्य की संरचना की तरह राज्य को एक आवश्यक संस्था के रूप में देखते हैं लेकिन राज्य की असीमित शक्तियों को अस्वीकार भी करते हैं। डॉ. अंबेडकर राज्य और सरकार से संवेदनशीलता की अपेक्षा करते हैं, जो समाज के वंचित समुदाय के लिए सकारात्मक कदम उठाए और एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना हो जहां पर स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व का भाव हो।

डॉ. अंबेडकर ने संसदीय शासन प्रणाली का समर्थन किया। एक ऐसी शासन प्रणाली के पक्ष में थे जिसमें कार्यपालिका समर्थ होने के साथ-साथ उत्तरदायी और संवेदनशील भी हो। यह कार्यपालिका व्यवस्थापिका के निर्देशन में कार्य करें तथा वह संसदीय व्यवस्था में बहुमत द्वारा अल्पमत के हितों की उपेक्षा न हो।

डॉ. अंबेडकर द्विदलीय प्रणाली का समर्थन करते हैं। हालांकि उन्होंने बहुदलीय प्रणाली को भी स्वीकार किया। डॉ. अंबेडकर ने तटस्थ प्रशासन का समर्थन किया। उनका मानना था कि प्रशासन की निष्ठा संविधान और कानून के प्रति होनी चाहिए किसी विशिष्ट या सत्तारूढ़ दल के प्रति नहीं। वह तटस्थता के लिए सिविल सेवाओं को स्थायित्व तथा संवैधानिक संरक्षण देने के पक्षधर थे। लेकिन लालफीताशाही और लूट प्रणाली की उन्होंने आलोचना की।

डॉ. अम्बेडकर लोकतंत्र के न सिर्फ सैद्धांतिक पक्ष बल्कि व्यावहारिक लोकतंत्र की पैरोकारी करते हैं । उनके अनुसार लोकतंत्र की जड़ें समाज में मनुष्य के आपसी संबंधों में ढूँढी जा सकती हैं । उनका मानना था कि भारतीय समाज में व्याप्त निरक्षरता , निर्धनता एवं जातिगत भेदभाव लोकतंत्र के लिए खतरे हैं । शासन प्रणाली के स्तर पर उन्होनें संसदीय लोकतंत्र को अपनाने पर जोर दिया। वे सिर्फ राजनीतिक जीवन में लोकतंत्र का समर्थन ही नहीं करते थे बल्कि उनका मानना था कि जब तक सामाजिक और आर्थिक जीवन में लोकतंत्र नहीं आता है तब तक लोकतंत्र की संकल्पना को साकार नहीं किया जा सकता है।

डॉ. अंबेडकर क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों के विकास के पक्षधर थे लेकिन उन्होंने राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को ही प्रतिस्थापित करने पर ज्यादा जोर दिया। उनका मानना था कि हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जो संपूर्ण राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांध सकती है। वे भाषाई आधार पर प्रांतों के गठन के पक्षधर नहीं थे। वह भाषावाद को सांप्रदायिकता का ही दूसरा रूप मानते थे।

वर्तमान में राष्ट्रवाद की विचारधारा वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय है जिसमें संकीर्णताएं और सम्प्रदायवाद भी शामिल हैं । डॉ अम्बेडकर के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ संप्रदायवाद नहीं था । डॉ अम्बेडकर राष्ट्र शब्द का प्रयोग उस संदर्भ में करना पसंद करते थे जिसके अंतर्गत इसका आशय राज्य से होकर समाज तक जाता हो । वे राष्ट्रवाद को मानव जीवन में एक वास्तविक शक्ति के रूप में स्वीकार करते थे ।

अम्बेडकर के लेखन ने उन्हें एक अंतरराष्ट्रीय शख्सियत में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दलित समुदाय के लिए डॉ. अम्बेडकर एक नायक और एक सामाजिक कार्यकर्ता थे, लेकिन बड़े पैमाने पर दुनिया के लिए, अम्बेडकर एक जागरूक और जीवंत विचारक थे। एक विचारक के रूप में उनकी साख उनके लेखों, पुस्तकों और पत्रिकाओं और उनके द्वारा प्रकाशित समाचार पत्रों के माध्यम से स्थापित हुई।

डॉ. अम्बेडकर की विचारधारा एक नई, जीवंत सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए प्रासंगिक है, जो किसी व्यक्ति की गरिमा को बरकरार रखे, और उसे अज्ञानता, शर्म और अपमान के बंधनों से मुक्त करे। राष्ट्र-निर्माण की उनकी दृष्टि स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित है और उन्होंने वेदों की अचूकता को त्याग दिया और वर्ण व्यवस्था और श्रेणीबद्ध असमानता को खारिज कर दिया।

मानवतावाद और तर्कसंगतता के प्रति उनका लगाव और गरीबों और दलितों के प्रति उनका लगाव इस बात का संकेत देता है कि अम्बेडकर एक महान राष्ट्र निर्माता थे। अपनी विभिन्न भूमिकाओं, कार्यों और अपने विपुल लेखन के माध्यम से उन्होंने सामाजिक परिवर्तन का नेतृत्व किया।

डॉ. अंबेडकर भारतीय इतिहास के उन नायकों में शुमार हैं, जिनके विचारों, दर्शन और कर्म का एक बड़ी आबादी पर व्यापक और त्वरित प्रभाव पड़ा। डॉ. अंबेडकर ने वंचित समुदाय के जीवन-संसार को बदल कर रख दिया। ‛शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ जैसे मंत्र ने हाशिए के समाज में एक नई चेतना का संचार किया। देश-दुनियाँ में डॉ. अंबेडकर के कार्यक्रमों को अलग-अलग चलाने वाले संगठन और संस्थाएं तो हैं लेकिन उनके समग्र दर्शन पर चलने वाले और विचारधारा का एक ढांचा तैयार करने वाले राजनीतिक संघर्ष का आकार लेना अभी बाकी है।

लेखक डॉ. मनोज कुमार, सहायक प्राध्यापक
विश्वविद्यालय राजनीति विज्ञान विभाग, सह-उप परीक्षा नियंत्रक ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय दरभंगा।