#MNN24X7 कथा प्रारम्भ

सत्यनगर की भोर में हमेशा एक सन्नाटा फैला रहता था—
गली के दोनों ओर झुकी कच्ची दीवारें, कहीं से उठता धुएँ का पतला गुबार,
कुँए पर बर्तन धोती औरतें और दूर से आती मंदिर के घंटी की आवाज।

पर उस सोमवार की सुबह, सूरज की पहली किरणों से पहले ही,
सत्यनगर की हवा भारी हो चुकी थी।
जैसे किसी अदृश्य हाथ ने पूरे कस्बे की छाती पर बोझ रख दिया हो। कोनो से चिल्लाने की आवाज आयी

‘देव नारायण झा… फाइनेंस कंपनी वाले देव… फांसी लगा लिए!’
यह खबर उस रफ्तार से फैली,
जैसे खेतों में लगी आग हवा को चीरकर चारों तरफ फैल जाती है।

पुरना पोखरि, मंदिर वाली गली में
देव नारायण झा का घर एक साधारण-सी मिट्टी की खुशबू से सना हुआ था।
पिता—पंडित रामवृक्ष झा—
उनका सीना फूला हुआ, माथा पसीने से भरा, पैर काँपते हुए घर की चौखट से बाहर आया।

वह बार-बार उस सुसाइड नोट को देख रहा था
जो अब थानेदार के हाथ के कागजों में दबा पड़ा था—

> “सॉरी पापा…
मैं अच्छा बेटा नहीं बन सका।
स्नेहा ने मेरी फीलिंग के साथ खिलवाड़ किया।”

रामवृक्ष के हाथ काँप उठते।
कितने सपने थे उनके—
देव इंजीनियर नहीं बन पाया, पर नौकरी कर ली,
घर के खर्च सँभाले, माँ का इलाज कराया,
और पिता के ईमान को कभी आंच नहीं आने दी।

पर आज वही बेटा लिख रहा था—‘मैं अच्छा बेटा नहीं बन सका।’

रामवृक्ष के मन में सवाल तड़प रहे थे—
“कौन थी वह लड़की?
कैसी चोट दी होगी उसने?
क्या सच में मेरी परवरिश इतनी कमजोर थी
कि मेरा बेटा मौत को चुन गया?”

सूरज फाइनेंशियल इंटरप्राइजेज की दोमंजिला इमारत
प्रतापनगर के मोड़ पर खड़ी थी।
कर्मचारी रोज की तरह हँसते-बोलते दफ्तर पहुँचे थे,
पर उस दिन की हवा उतनी हल्की नहीं थी।

दोपहर के दो बज रहे थे
जब देव अपने चेंबर में गया और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया।

“सर, एक फाइल चाहिए…”
कर्मचारी ने दरवाजा खटखटाया,
पर भीतर से कोई आवाज नहीं आई।

तीन बजे… चार बजे…
फोन बंद… अंदर हलचल नहीं।
कर्मचारियों की चिंता अब डर बन चुकी थी।

छह बजे जब मामा सूजन झा आए
और दरवाजा तोड़ा गया—
तो भीतर का दृश्य देखकर हवा थम गई।

देव नारायण—
पंखे से लटकता हुआ शरीर,
नीचे टूटी कुर्सी,
और मेज पर खुला पड़ा मोबाईल।

एक कोने में पड़ा कागज…
जिस पर लिखा था—
“मेरे अंग डोनेट कर देना।
स्नेहा ने मेरी दुनिया उजाड़ दी है।
गोलू की स्कूटी गिरवी रख दी है—पूरी बात अब दीपिका ही बताएगी…”

सत्यनगर के लोग यह पढ़कर थर्रा गए—
आख़िर कौन सी आग थी उसके भीतर
जिसने उसे मौत जैसे निर्णय तक पहुँचा दिया?

उस रात प्रतापपुर पुलिस थाने इंस्पेक्टर के सामने वाली कुर्सी पर
रोमित झा बैठा हुआ था—
मिथिला टाइम्स का युवा पत्रकार,
तेज दिमाग, संवेदनशील दिल, और कलम की साफ़ सूरत।

रोमित ने सुसाइड नोट को ध्यान से पढ़ा,
और उसकी आँखों में उदासी और ताज्जुब दोनों तैर गए।

“यह आत्महत्या नहीं,
एक मोहभंग की कहानी है,”
उसने धीरे से कहा।

पुलिस के सामने रखी दो फाइलें गायब थीं—
कंपनी के अहम खातों की।
क्या यह केवल प्रेम-विछोह था?
या आर्थिक दबाव भी?

रोमित की रुचि अब इस मामले से व्यक्तिगत हो चुकी थी।

घर लौटकर उसने देव की पुरानी पोस्टें देखीं—
एक साधारण युवक,
जो अपने पिता की दवाइयों के बिल भी सोशल मीडिया पर नहीं डालता था।
एक ऐसा लड़का,
जिसे माँ की बीमारी में रातों की नींद उड़ी रहती थी
और जिसे अपनी बहन की शादी के लिए पैसे जोड़ने थे।

फिर स्नेहा आई—
एक निजी कंपनी में काम करने वाली लड़की,
हँसती, बातूनी, और जरूरतों से ज्यादा सपनों वाली।

देव ने अपने दिल का दरवाजा उसके लिए खोल दिया।
स्नेहा ने भी कहा—
“तुम मेरी दुनिया हो।”
पर दुनिया शायद इतनी स्थिर नहीं थी।

धीरे-धीरे देव के पैसों की जरूरत बढ़ी,
स्नेहा की मांगें बढ़ी,
और देव की जिम्मेदारियाँ गहराती चली गईं।

प्रेम और परिवार की पाटी पर बैठे देव का मन
दोनो ओर झूलता रहता था।

एक ओर पिता की उम्मीदें,
माँ की दवा,
बहन का भविष्य—
और दूसरी ओर प्रेम,
जिसके लिए उसने पहली बार जिंदगी में
थोड़ी-सी मनमानी की थी।

पर प्रेम ने उसका हाथ बीच रास्ते में छोड़ दिया।

समाज की सबसे बड़ी विडंबना यही है—
कि हम अपने बच्चों को ‘जीने का हक़’ तो देते हैं,
पर ‘गलतियां करने का हक़’ कभी नहीं देते।

पिता ने अपनी जवानी कड़ी मेहनत में झोंकी,
ताकि बेटा सुख से रहे।
पर बेटे ने पहली ही ठोकर में जीवन से हार मान ली।

यह गलती किसकी थी?

देव की?
स्नेहा की?
या समाज की जो युवाओं को
सपनों और जिम्मेदारियों के बीच पिसने देता है?

मिथिला की मिट्टी में
सीता के त्याग और समर्पण का इतिहास लिखा हुआ है।
यहां प्रेम केवल आकर्षण नहीं,
बल्कि कर्तव्य, संस्कार और वादा होता है।

लेकिन आज की पीढ़ी—
सोशल मीडिया और त्वरित संबंधों में उलझी हुई—
इन मूल्यों को पूरी तरह समझ नहीं पाती।

देव भी नहीं समझ पाया।
उसे लगा कि प्रेम बस साथ रहने से पूरा हो जाता है।
पर प्रेम अपने साथ एक कर्तव्य भी मांगता है—
त्याग का, धैर्य का, और आत्मविश्वास का।

देव के पास प्रेम था,
पर धैर्य और सामर्थ्य नहीं।

उसके भीतर लड़ाई दो चीजों की थी—
दिल की और समाज की।

और हार किसी पक्ष की नहीं,
देव की हुई।

रोमित ने जब देव का मोबाइल रिकवर करवाया,
तो उसमें एक अधबना वीडियो मिला।
धुंधली आवाज़, कांपती साँसें—

> “पापा… सॉरी…
मैं टूट गया हूँ।
स्नेहा ने जो मेरे साथ किया…
मैं सह नहीं पा रहा हूँ।”

वीडियो वहीं कट गया।

रोमित ने उसे कई बार देखा—
हर बार उसे देव की आत्मा अपनी मुट्ठी में बंद लगती,
जो सांस लेने को तड़प रही थी।

समाज का आईना

देव की मौत ने सत्यनगर को झकझोर दिया।
पर यह केवल एक युवक की त्रासदी नहीं थी।
यह उस पूरी पीढ़ी की गूंज थी
जो प्रेम को सबकुछ मान लेती है
और टूटने पर जीवन छोड़ देती है।

वह पीढ़ी
जो माता-पिता के संघर्ष को समझने से पहले ही
अपनी भावनाओं की गलियों में खो जाती है।

देव का “सॉरी पापा”
केवल पिता के लिए नहीं था—
यह संपूर्ण समाज के लिए
एक चेतावनी थी।

चार दिन बाद,
रामवृक्ष झा अपने बेटे की चिता के पास खड़े थे।
धुएँ की लकीरें आकाश में उठ रही थीं।
उन्होंने धीरे-धीरे आँखें बंद कीं
और फुसफुसाए—

“बेटा… तू बुरा नहीं था।
दुनिया ने तुझे समझने नहीं दिया।”

उनकी आवाज़ रुक-रुक कर निकल रही थी,
पर विश्वास पूरा था—
कि देव किसी अपराध का दोषी नहीं,
बल्कि परिस्थितियों का शिकार था।

सत्यनगर की हवा में अब भी
उसकी आवाज़ तैरती थी—

“सॉरी पापा…”

और हर पढ़ने वाले दिल में
एक टीस उठती थी—
कि काश बेटा अपने पिता के कंधे पर रो लेता,
तो शायद आज जीवन बच जाता