अतिव्यापक एवं मूल्यपरक वेदांत दर्शन के विकास में मिथिला का अप्रतिम योगदान- मुख्य वक्ता डा धीरज पाण्डे।

सेमिनार में डॉ घनश्याम, डॉ चौरसिया, डॉ ममता, डॉ मोना, मुकेश झा तथा रीतु आदि ने भी रखे महत्वपूर्ण विचार।

#MNN@24X7 दरभंगा, मिथिला आदिकाल से ही दर्शनों, विचारों, ज्ञान- विज्ञानों, विद्वानों, आचार्यों, वेदान्तियों, यज्ञों, तंत्रों तथा साहसियों आदि की उर्वर भूमि रही है, जहां मतों का मंथन होता रहा है। वहीं यह ऋषियों एवं ब्रह्मवादिनियों की भी भूमि रही है जहां अनादि काल से ही वेदांत का विकास होता रहा है। मिथिला के राजा जनक भी एक अच्छे वेदांतवादी थे।

उक्त बातें ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग तथा डॉ प्रभात दास फाउंडेशन, दरभंगा के संयुक्त तत्वावधान में “वेदांतदर्शन के विकास में मिथिला का योगदान” विषयक राष्ट्रीय सेमिनार में कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर दर्शन विभाग के प्राध्यापक डॉ धीरज पांडे ने कही। उन्होंने कहा कि अतिव्यापक एवं मूल्यपरक वेदांतदर्शन के विकास में मिथिला का अप्रतिम योगदान रहा है। मिथिला के गृहस्थ भी वेदांती होते हैं। लगभग सभी ब्रह्मपरक ग्रंथ मिथिला में ही रचित हुए।

विशिष्ट वक्ता के रूप में फाउंडेशन के सचिव मुकेश कुमार झा ने कहा कि मिथिला में प्रारंभ से ही सभी सिद्धांतों एवं मतों का खंडन एवं मंडन होता रहा है और यह परंपरा निरंतर चलती रहती है। उन्होंने कहा कि अद्वैतवेदांत में ब्रह्मसूत्र ग्रंथ पर मिथिला में वाचस्पति मिश्र रचित ‘भामती’ टीका एक प्रामाणिक ग्रंथ है। वाचस्पति ने बौद्धों पर तर्कपरक प्रहार किया। वहीं उदयनाचार्य ने भी बौद्धों को मुंहतोड़ जवाब दिया।

विषय प्रवेश कराते हुए विभागीय प्राध्यापिका डा ममता स्नेही ने बताया कि वेदों के अंत में लिखित उपनिषद् ग्रंथ ही वेदांत हैं। बौद्ध धर्म- दर्शन के विकास से सनातन धर्म की क्षीणता होने पर शंकराचार्य ने दक्षिण भारत से मिथिला आकर मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ किया तथा वेदांत पर सरल भाषा में भाष्य लिखने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि वेदांत की रहस्य-विद्या का रहस्योद्घाटन मिथिला में ही हुआ जो मानव को स्थायी मुक्ति का मार्ग बतलाता है।

अध्यक्षीय संबोधन में डॉ घनश्याम महतो ने सेमिनार के विषय को प्रासंगिक एवं अद्वितीय बताते हुए कहा कि मिथिला आदिकाल से ही दर्शनों का मजबूत केन्द्र रहा है जो वैदिक धर्म का अभेद्य दुर्ग माना जाता है। मिथिला की राजधानी जनकपुर आध्यात्मिक विद्या का अद्वितीय केन्द्र था। आगत अतिथियों का स्वागत करते हुए सेमिनार के संयोजक डा आर एन चौरसिया ने कहा कि भारत में वैचारिक एवं आत्मचिंतन की दृष्टि से जो चरम विकास हुआ, उसी की परिणिति वेदांत है। मिथिला की ऐतिहासिक भूमि ने भारतीय दर्शन को अति विपुलता के साथ सृजित, पोषित एवं प्रकाशित किया है। दर्शन प्रधान मिथिला में आध्यात्मिक ज्ञान भी सर्वोच्च स्थान पर रहा है।

सेमिनार का प्रारंभ दीप प्रज्वलन से हुआ, जबकि अतिथियों का स्वागत पुष्पपौधा से किया गया। वहीं स्वस्तिवाचन अतुल कुमार झा ने किया। शोधार्थी रितु कुमारी के संचालन में आयोजित सेमिनार में विभागीय प्राध्यापिका डॉ मोना शर्मा ने धन्यवाद ज्ञापन करते हुए मिथिला की प्रधानता, वेदांत दर्शन की रूपरेखा तथा उसके विकास में मिथिला के योगदान की संक्षिप्त चर्चा की।

सेमिनार में डॉ भक्तिनाथ झा, डॉ राम नारायण राय, डॉ संजीत कुमार राम, डॉ बालकृष्ण शर्मा, डॉ प्रदीप कुमार मंडल, डॉ मारुति नंदन, डॉ सनी कुमार, डॉ अजय कुमार आनंद, अमित कुमार झा, डॉ अवधेश कुमार, राजकुमार गणेशन, पंकज कुमार राम, देव कुमार झा, राजेश, अनिल कुमार सिंह, सुमेधा, डॉ कुमारी पूनम राय, दीपक पासवान, शोधार्थी- सदानंद विश्वास, गिरीश कुमार झा, करण कुमार भगत, अतुल कुमार झा, विकास कुमार यादव, पंकज राम, प्रहलाद, माधुरी, कंचन, जिग्नेश, शाश्वत, मंजू अकेला, विद्यासागर भारती, उदय कुमार उदेश तथा योगेंद्र पासवान आदि सहित 50 से अधिक व्यक्ति उपस्थित थे।