#MNN@24X7 दरभंगा, आज दिनांक 11 अप्रैल को विश्वविद्यालय हिंदी विभाग, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा द्वारा आयोजित द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ एवं उद्घाटन कुलपति प्रो० सुरेंद्र प्रताप सिंह के द्वारा किया गया। इस अवसर पर भारतीय राष्ट्रीय सांस्कृतिक आंदोलन में हिंदी साहित्य की भूमिका पर केंद्रित स्मारिका तथा ‘अस्मितामूलक विमर्श के विविध आयाम’ शीर्षक पुस्तक का लोकार्पण कुलपति, कुलसचिव प्रो०मुश्ताक अहमद, मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो०ए के बच्चन, हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो० राजेन्द्र साह, पूर्व मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो०प्रभाकर पाठक, पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो० चन्द्रभानु प्रसाद सिंह, प्रो० बजरंग बिहारी तिवारी आदि सम्मानित अतिथियों द्वारा हुआ।

इस अवसर पर अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो० सुरेंद्र प्रताप सिंह ने कहा कि प्रो० प्रभाकर पाठक जैसा प्रकांड विद्वान पाकर मिथिला विश्वविद्यालय धन्य है।

प्रो० सिंह ने कहा कि साहित्य चाहे किसी भी भाषा का हो वह अंततः चेतना के लिए ही कार्य करता है। राष्ट्रवाद अगर भौगोलिक ही हो तब वह बेहद सतही होता है। जबतक राष्ट्रवाद संस्कृति से नहीं जुड़ेगा वह टिकाऊ नहीं हो सकता है। भारत की महानता पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि इस देश के विचारकों ने तो लिखा कुछ भी नहीं लेकिन यहां की मौखिक परम्परा ही साहित्य बन गयी। चारों वेद वाचिक परम्परा के महान उदाहरण हैं। इसीलिए सबसे महत्त्वपूर्ण विचार हैं। प्रो० सिंह ने आगे कहा कि सांस्कृतिक चेतना के उत्थान में भारतीय संत परम्परा का जो योगदान है उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। उन्होंने अपनी वाणी को विराम देते हुए विश्वविद्यालय हिंदी विभाग की भूरी-भूरी प्रशंसा की।

संगोष्ठी में विश्वविद्यालय के कुलसचिव प्रो० मुश्ताक अहमद ने कहा मेरा ताल्लुक जिस मजहब से है वह इस्लाम है। उन्होंने कहा कि इस्लाम की पहली सीख ही यही है कि जिस जर्रे पर तुम जन्म लो हमेशा उसकी इबादत करो। उन्होंने यह कहा कि इतिहास बदलने वालों को इतिहास उठाकर देखना चाहिए कि 1857ई० में अंग्रेजों ने सबसे पहले फाँसी पर किसे चढ़ाया था?मोहम्मद बाकर का नाम किसी से छिपा नहीं है। रूस की क्रांति में अहम भूमिका निभानेवाले रसूल हमजा तोप को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उन्होंने लिखा था कि मैं अपनी मातृभूमि में दफन होने से पहले उस से गुलाब का पुष्प खिलते देखना चाहता हूँ। उन्होंने विवेकानन्द को याद करते हुए उन्होंने कहा था कि जो भी, जिस भी परिवेश से, जिस भी धरती से इस धरती पर आया उसने अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने स्तर पर इसे जन्नत बनाने का कार्य किया। प्रो० अहमद ने यह भी कहा कि असल राष्ट्रवाद लोकगीतों में छिपा है, गेंहू काटने वाले मजदूरों-मज़दूरनियों के गीतों में छिपा है। आज जब राष्ट्रवाद को अलग ढंग से व्याख्यायित किया जा रहा है तब पुनः इस पर विचार करने की आवश्यकता है, यह कहते हुए उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया।

इस अवसर पर मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो० ए०के०बच्चन ने कहा कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हिंदी साहित्य में नवीन दृष्टि का विस्तार हुआ। कई महान लेखकों ने अपनी रचनाओं से स्वतंत्रता आंदोलन को धार दी। इसी दौर में कवियों ने नई शैलियों का सृजन किया। कई राजनेताओं ने भी इस दौर में साहित्य सृजन कर भारतीय जनमानस को उद्वेलित किया। स्वयं महात्मा गांधी हों या आचार्य विनोबा भावे ने अपने ढंग से साहित्य की रचना कर आजादी की लड़ाई को जन-जन तक पहुंचने का कार्य किया।

पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष सह मानविकी संकायाध्यक्ष प्रो० प्रभाकर पाठक ने कहा कि राष्ट्र वाणी है और संस्कृति उसकी कविता है। उन्होंने ऋग्वेद से लेकर अज्ञेय तक को जोड़ते हुए राष्ट्र और संस्कृति की व्याख्या की। उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक आंदोलन का स्मरण करते हुए कहा कि बंगाल से यह क्रांति शुरू हुई जिसके प्रणेता राजा राम मोहन राय, रवींद्रनाथ ठाकुर, काजी नजरूल इस्लाम, शरतचन्द्र चटर्जी आदि थे।
प्रो० पाठक ने कहा कि न हिन्दू बुरा है, न मुसलमान बुरा है, सच्चाई यह है कि वह इंसान बुरा है जो वैमनस्य फैलाता है। उन्होंने सर सैय्यद अहमद खाँ को याद करते हुए कहा कि उन्होंने इस देश के लिए क्या नहीं किया, ऐसे में हम मुसलमानों को कठघरे में कैसे खड़ा कर सकते हैं।
अशफाकउल्ला खान को याद करते हुए उन्होंने कहा कि उन जैसा क्रांतिकारी मिलना दुर्लभ है। उन्होंने कहा कि यह विषय महासागर है और अगर इस पर बोलना शुरू किया जाए तो समेटना असम्भव है। अपनी वाणी को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि दिनकर के ‘चार अध्याय’ क्या हैं, इसे समझना पड़ेगा। वे ‘चार अध्याय’ भारत की बहुआयामी विविधता के प्रतीक हैं।

इस अवसर पर हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो० चन्द्रभानु प्रसाद सिंह ने कहा कि आजादी की लड़ाई में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इस राजनैतिक लड़ाई के बीच विराट सांस्कृतिक चेतना का भी जागरण हुआ। माखनलाल चतुर्वेदी के आंदोलनकारी चरित्र को उद्धरित करते हुए उन्होंने बताया कि बारह बार उन्हें जेल जाना पड़ा और तिरसठ बार उनकी पत्रिका कर्मभूमि को बंद करने का आदेश दिया गया। प्रो० सिंह ने आगे कहा कि भारतेंदु वे पहले लेखक हैं जिन्होंने पहली बार राजनैतिक यथार्थ को भारतीय जनमानस के समक्ष रखने का प्रयास किया। निराला की कविताओं, जयशंकर प्रसाद के नाटकों, प्रेमचंद के उपन्यासों में वस्तुतः भारतीय अस्मिता की खोज है। यह एक नया प्रचलन शुरू हो गया है कि आज राष्ट्रीय संस्कृति की बात करते हुए हिन्दू संस्कृति अथवा मुस्लिम संस्कृति की बात की जाने लगी है लेकिन उस दौर के साहित्यकारों ने कभी राष्ट्रीय संस्कृति के साथ धार्मिकता को नहीं मिलाया। दिनकर ने बहुभाषिकता और बहुसंस्कृति का विशद चित्रण ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में किया है। उस दौर के रचनाकारों के लिए ईश सेवा का मतलब देश सेवा था।

उन्होंने अपनी वाणी को विराम देते हुए कहा कि आज जरूरत है इतिहास की पुनर्व्याख्या के साथ ही उस नवीन दृष्टि की जिससे भविष्य में कभी भी भारत को 1947ई० की त्रासदी दुबारा न झेलनी पड़े।

अपने स्वागत उद्बोधन में हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो० राजेन्द्र साह ने कहा कि आज की संगोष्ठी से पहले भी एक अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन 2021 में हिंदी विभाग के द्वारा किया जा चुका है। उन्होंने जोर देकर कहा कि यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि सभी आयोजनों की सफलता के पीछे विश्वविद्यालय के यशस्वी कुलपति की अहम भूमिका है। उन्होंने आगत सभी अतिथियों का परिचय देते हुए उनका स्वागत किया।

इस अवसर पर हिंदी विभाग की छात्राओं ने स्वागत गान से आगत अतिथियों को मंत्रमुग्ध कर दिया। इस अवसर पर मैथिली विभाग के अध्यक्ष प्रो० दमन कुमार झा, राजनीति विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो० मुनेश्वर यादव, सीसीडीसी डॉ० महेश प्रसाद सिन्हा, विभाग की डाॅ० मंजरी खरे कई विभागों के शिक्षक-प्रधानाचार्य-डाॅ० आरती प्रसाद,डाॅ० विनीता कुमारी,डाॅ० शशिभूषण कुमार शशि,डाॅ०दिनेश प्रसाद साह, अखिलेश कुमार राठौर, अनुरुद्ध सिंह,डाॅ० गजेन्द्र भारद्वाज,डाॅ० वर्मा आदि, शोधार्थीगण और बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे। मंच का संचालन डॉ० आनन्द प्रकाश गुप्ता ने किया।