#MNN@24X7 जमशेदपुर, जेएन टाटा का जन्म 1839 में नवसारी में हुआ था। उनके पिता नसरवानजी टाटा ने एक देशी बैंकर से व्यापार के मूल सिद्धांतों को सीखकर बंबई चले गए। जहां वे एक हिंदू व्यापारी के साथ जुड़ गए। इसके कुछ समय बाद जेएन टाटा भी बंबई में अपने पिता के साथ काम करने लगे। साथ ही उन्होंने एलफिन्स्टन इंस्टीट्यूशन में दाखिला भी लिया। जहां से वे 1858 में ग्रीन स्कॉलर (स्नातक) के रूप में उत्तीर्ण हुए।

वहीं 1859 हांगकांग में एक नई शाखा के सह प्रबंधक के रूप में वे अपने पिता की फर्म नसरवानजी और कालियानदास, जनरल मर्चेंट्स में शामिल हुए। उस वक्त अमेरिकी गृहयुद्ध अपने चरम पर था। जिसने दक्षिणी राज्यों से लंकाशायर की मिलों को कच्चे कपास की आपूर्ति बाधित कर दी थी। कपास के लिए बेताब, लंकाशायर ने भारत को अपने कपास के लिए सामान्य कीमत से दोगुनी कीमत की पेशकश की। इस अवसर से उनकी किस्मत रातों-रात बदल गई।

इस बीच जेएन टाटा वापस बंबई लौट आए। नसरवानजी टाटा के साझेदार प्रेमचंद रॉयचंद अपने बैंक एशियाटिक बैंकिंग कॉर्पोरेशन की लंदन में एक शाखा खोलना चाहते थे। साथ ही यह भी चाहते थे कि जेएन टाटा इसका नेतृत्व करें। बैंक बेहतर प्रदर्शन कर रहा था और इसका कारण अमेरिकी गृहयुद्ध के परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था में आया उछाल था। जेएन टाटा ने दिसंबर 1864 में चीन के बाजार में बिल्स की खेप ले जाने की शुरुआत की। साथ ही उन्हें भारत से लिवरपूल के लिए कपास की बड़ी खेप के लदान के लिए भी अधिकृत किया गया।

इस दौरान 1865 की शुरुआत में जनरल ली के आत्मसमर्पण के साथ अमेरिकी गृहयुद्ध समाप्त हो गया। अमेरिकी कपास की आपूर्ति फिर से शुरू होने के साथ साथ इस व्यवसाय पर आघात भी हुआ। जेएन टाटा के लिए अब चीनी बिल का बंडल रद्दी कागज था। उन्होंने इमानदारी से अपनी फर्म के लेनदारों और बैंकरों को अपनी स्थिति बताई। जिसके बाद उन्होंने उन्हें लिक्विडेटर नियुक्त किया। क्योंकि उन्हें उन पर भरोसा था। वहीं 1867 में जेएन टाटा ने मैनचेस्टर में थॉमस कार्लाइल को इस कहावत की व्याख्या करते हुए सुना कि “जो राष्ट्र लोहे पर नियंत्रण प्राप्त करता है, वह जल्द ही सोने पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है।”

जेएन टाटा की इंग्लैंड में पहली यात्रा के साथ साथ बाद के वर्षों में किए गए अन्य अभियानों ने उन्हें आश्वस्त किया कि कपड़ा उद्योग के प्रचलित ब्रिटिश प्रभुत्व में सेंध लगाने के लिए भारतीय कंपनियों के पास जबरदस्त गुंजाइश थी। जिसके बाद जेएन टाटा ने 1869 में कपड़ा उद्योग में कदम रखा। उन्होंने बंबई के औद्योगिक क्षेत्र के केंद्र में स्थित चिंचपोकली में एक जीर्ण-शीर्ण और दिवालिया तेल मिल का अधिग्रहण कर इसका नाम एलेक्जेंड्रा मिल रखा। जिसे एक कपास मिल में बदल दिया। मगर दो सालों बाद ही जेएन टाटा ने एक स्थानीय कपास व्यापारी को महत्वपूर्ण लाभ के बदले यह मिल बेच दी। जिसके बाद उन्होंने इंग्लैंड की एक विस्तारित यात्रा कर लंकाशायर कपास व्यापार का एक विस्तृत अध्ययन किया।

श्रमिकों, मशीनरी और उत्पादन की गुणवत्ता उन्होंने इस प्रवास के दौरान देखा और जो वह काफी प्रभावशाली भी था। हालांकि उन्हें पूरा यकीन था कि वो इस कहानी को अपने देश में दोहरा सकते हैं। जेएन टाटा का मानना ​​था कि वह एक ऐसे खेल में उन औपनिवेशिक व्यवसायियों का मुकाबला कर सकतें हैं और उन्हें हरा सकते हैं, जिन्होंने अपने लाभ के लिए धांधली की थी। उस समय के प्रचलित मान्यता के अनुसार यह निर्धारित था कि बॉम्बे नई परियोजना स्थापित करने के लिए उपयुक्त स्थान है। मगर जेएन टाटा की प्रतिभा ने उन्हें गलत साबित किया।

उन्होंने सोचा कि वह अपनी सफलता की संभावना को बढ़ा सकते हैं। यदि वे अपनी योजनाओं में तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं जैसे कपास उगाने वाले क्षेत्रों से निकटता, रेलवे जंक्शन तक आसान पहुंच और पानी एवं ईंधन की भरपूर आपूर्ति शामिल थे। महाराष्ट्र के कपास क्षेत्र के मध्य में स्थित नागपुर ने इन सभी शर्तों को पूरा किया। 1874 में उन्होंने 1.5 लाख रुपए की शुरुआती पूंजी के साथ एक नया उद्यम, सेंट्रल इंडिया स्पिनिंग, वीविंग एंड मैन्युफैक्चरिंग कंपनी शुरू की। तीन साल बाद उनका उद्यम अपनी नियति को साकार करने के लिए तैयार था। वहीं 1 जनवरी 1877 जिस दिन महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया, उसी दिन नागपुर में एम्प्रेस मिल्स अस्तित्व में आया। 37 साल की उम्र में उन्होंने अपने पहले शानदार सफर की शुरुआत कर ली थी।

जेएन टाटा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विचारों से पूरी तरह सहानुभूति रखते हुए बंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले अधिवेशन में उपस्थित हुए। वो आर्थिक रूप से इसका समर्थन कर जीवन भर कांग्रेस के सदस्य भी बने रहे। उनके परोपकारी सिद्धांत इस विश्वास में निहित थे कि भारत को गरीबी से बाहर निकालने के लिए इसके बेहतरीन प्रतिभा का उपयोग करना होगा। चैरिटी और हैंडआउट उनके तरीके नहीं थे। इसलिए उन्होंने 1892 में जेएन टाटा एंडोमेंट की स्थापना की। इसने भारतीय छात्रों को जाति या पंथ की परवाह किए बगैर इंग्लैंड में उच्च अध्ययन करने में सक्षम बनाया।

यह शुरुआत टाटा छात्रवृत्ति में फली-फूली और जो इस हद तक विकसित हुई कि 1924 तक प्रतिष्ठित भारतीय सिविल सेवा में आने वाले प्रत्येक पांच भारतीयों में से दो टाटा स्कॉलर थे। भारतीय विज्ञान संस्थान बनाने का उद्देश्य उसी स्रोत से आया था। मगर यहां स्टील प्लांट की तरह जेएन टाटा को भी अपने जीवनकाल में कोई ठोस प्रतिफल प्राप्त किए बिना कई वर्षों तक मुश्किलें भी झेलनी पड़ी। उन्होंने संस्थान की स्थापना के लिए अपने व्यक्तिगत संपत्ति से 30 लाख रुपए देने का वादा किया। इसे जिस आकार में लेना चाहिए, उसका खाका तैयार कर इसे वास्तविकता में बदलने के लिए वायसराय लॉर्ड कर्जन से लेकर स्वामी विवेकानंद तक सभी के समर्थन की याचना भी की।

वहीं स्वामी विवेकानंद ने उनके इस विचार के समर्थन में 1899 में लिखा कि मुझे नहीं पता कि कोई भी परियोजना पहली बार में इतनी उपयुक्त और अब तक अपने लाभकारी प्रभावों तक पहुंचने के लिए भारत में कभी भी शुरू की गई हो। यह योजना हमारे राष्ट्रीय कल्याण में आई कमजोरी के महत्वपूर्ण बिंदु को दृष्टि की स्पष्टता और मजबूत पकड़ के साथ समझती है। जिसकी विशेषज्ञता केवल उस उपहार की उदारता के बराबर है जो जनता को दी जा रही है। इस समर्थन के साथ ही इसी प्रकार के अन्य प्रयासों के बावजूद बैंगलोर में स्थापित शानदार भारतीय विज्ञान संस्थान को 1911 में अपने अस्तित्व में आने में 12 साल लगे। जिसके बाद के वर्षों में जेएन टाटा के अपने जीवन के देखे गए तीन महान सोच जिसमें एक लौह व इस्पात कंपनी की स्थापना, जलविद्युत शक्ति का उत्पादन और एक विश्व स्तरीय शैक्षणिक संस्थान का निर्माण, जो विज्ञान में भारतीयों को प्रशिक्षित करेगा, को मूर्त रूप दिया गया। उनके जीवित रहते हुए इनमें से कोई भी सपना साकार नहीं हुआ।

मगर जो बीज उन्होंने बोए थे, जो काम उन्होंने किया और अपने सपनों की इस त्रयी को पूरा करने के लिए उन्होंने जो इच्छाशक्ति दिखाई, उससे यह सुनिश्चित हुआ कि उन्हें शानदार प्रसिद्धि मिलेगी।थॉमस कार्लाइल ने आयरन और स्टील के विचार को तब जन्म दिया जब जेएन टाटा अपनी कपड़ा मिल के लिए नई मशीनरी की जांच के लिए मैनचेस्टर की यात्रा पर एक व्याख्यान में शामिल हुए। उन्होंने अपना दिल एक ऐसे स्टील प्लांट के निर्माण पर लगाया था, जिसकी तुलना दुनिया में अपनी तरह के सबसे अच्छे स्टील प्लांट से की जा सके और जो एक विराट कार्य था।

सन 1899 में मेजर माहोन की रिपोर्ट से वास्तव में जेएन टाटा को सर्वप्रथम भारत को एक स्टील उद्योग देने का अवसर मिला था। जबकि इससे पहले भारतीयों को कानून द्वारा स्टील प्लांट स्थापित करने की अनुमति नहीं थी। इस रिपोर्ट के कारण लॉर्ड कर्जन ने लाइसेंस प्रणाली को उदार बनाया। वह औद्योगिक क्रांति जिसने ब्रिटेन समेत अन्य देशों को बदल दिया था। जिससे भारत करीब करीब उपेक्षित रहा था। दकियानूसी सरकारी नीतियां, बमुश्किल सुलभ क्षेत्रों में पूर्वेक्षण की जटिलताओं और दुर्भाग्य ने मामले को बद से बदतर बना दिया। जेएन टाटा ने अपने जीवन के हर दूसरे मोड़ पर अपना मार्ग अवरूद्ध पाया।

जैसा कि उनके जीवनी लेखक फ्रैंक हैरिस ने लिखा है कि “वो विलक्षण बाधाएं जिन्होंने पूर्व को आधुनिक बनाने का प्रयास करने वाले अग्रदूतों के कदमों को रोका।”इस्पात परियोजना में तय किए गए कष्टप्रद मोड़ और घुमाव एक सामान्य इंसान को पराजित कर सकते थे। मगर जेएन टाटा इस उद्यम को फलीभूत होते देखने के अपने दृढ़ संकल्प पर अडिग रहे। सफर में उन्हें ग्रेट इंडियन पेनिन्सुलर रेलवे के चीफ कमिश्नर सर फ्रेडरिक अपकॉट जैसे लोगों के तिरस्कार का सामना भी करना पड़ा। जिन्होंने “स्टील रेल के हर पाउंड के उपभोग टाटा द्वारा बनाएं” का वादा किया था।

इस बात का कोई रिकॉर्ड नहीं है कि सन 1912 में जब प्लांट की उत्पादन लाइन से स्टील का पहला इंगट निकला तो सर फ्रेडरिक कहां थे। मगर तब तक जेएन टाटा की मृत्यु के आठ साल बीत चुके थे। लेकिन उनकी आत्मा उतनी ही जीवित थी, जितनी कि उनके बेटे दोराब और चचेरे भाई आरडी टाटा के प्रयास, जिन्होंने असंभव को संभव बना दिया। ब्रिक-और-मोर्टार प्रयास जो जेएन टाटा ने नियोजित और क्रियान्वित किए थे। वे एक भव्य विचार का हिस्सा थे। वह भविष्य के कितने महान दूरदर्शी थे। इसका अंदाजा कामगारों और उनके कल्याण के बारे में उनके विचारों से लगाया जा सकता है। जेएन टाटा ने पश्चिमी देशों में वैधानिक मान्यता प्राप्त होने से बहुत पहले अपने लोगों को कम काम के घंटे, अच्छी तरह हवादार कार्यस्थल और भविष्य निधि के साथ साथ ग्रेच्युटी की पेशकश की।

उन्होंने सन 1902 में दोराब टाटा को लिखे एक पत्र में स्टील प्लांट में श्रमिकों के लिए एक टाउनशिप की अपनी अवधारणा को स्पष्ट किया था। यहां तक ​​कि उद्यम के लिए एक साइट तय होने से पांच साल पहले ही। पत्र में कहा गया है कि ” यह सुनिश्चित करना कि सड़कें चौड़ी हो और उनके किनारों पर छायादार पेड़ों को भी लगाया जाए। हर दूसरा पेड़ तेजी से बढ़ने वाली प्रजाति का होने के साथ ही उनमें विविधता भी हो। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना कि लॉन और बगीचों के लिए पर्याप्त जगह हो। फुटबॉल, हॉकी और पार्कों के लिए बड़े क्षेत्रों को आरक्षित किया जाए। हिंदू मंदिरों, मुस्लिम मस्जिदों और ईसाई चर्चों के लिए भी क्षेत्र निर्धारित किए जाएं। यह उचित ही था कि इस उत्कृष्ट विज़न से निर्मित शहर को जमशेदपुर कहा जाए।

(सौ स्वराज सवेरा)