पहिल दृश्य

[प्रातःकाल । स्वामी हरिदास पूजा पर बैसल छथि ।माधो सिंहक प्रवेश ।]
माधो सिंह ( कातर स्वरमे )-गुरूदेव, अनर्थ होमए जा रहल अछि।
स्वामी हरिदास-से की?
माधो सिंह-तनसुख इस्लाम धर्म ग्रहण करए जा रहल अछि ।
स्वामी हरिदास-ऐं ! से के कहलक ?
माधो सिंह -आइ आगरासँ किछु घोड़-सवार आएल अछि; ओएह सभ ई बात बाजि रहल अछि। तनसुख कोनो यवन नर्तकीक रूप-लावण्य पर मोहित भए गेल अछि।सम्राट अकबर प्रोत्साहन दए रहल छैक । रूप आ
वैभवक आगाँ नतमस्तक भए तनसुख अपन धर्म छोड़िरहल अछि।
स्वामी हरिदास–माधो, हमरा नहि विश्वास होइत अछि जे तनसुखएहन कार्य करत ।
माधो सिंह -किन्तु, गुरूदेव, बात सत्य छैक । सभ केओ इएह बात बाजि रहल अछि ।… …हमरा तँ एहिमे सम्राट अकबरक कोनो चालि बुझना जाइछ ।
स्वामी हरिदास–सम्राट अकबरक चालि ?
..
-हँ, गुरूदेव ! एहिमे सम्राट अकबरक चालि छैक।…ओ हिन्दू-मुसलमानक एकताक नाटक कए रहल अछि । ‘दीन-इलाही’ नामक एक नव धर्मक आविष्कार कए ओ सभके इस्लामक रङ्गमे रङ्गि रहल अछि । कतोक हिन्दूके ओ एही नीतिसँ वशीभूत कएलक अछि ।
स्वामी हरिदास -नहि, अकवरशाह एकटा उदार सम्राट् अछि। ओ कथमपि ककरहु धार्मिक भावना पर आघात नहि पहुँचा सकैत अछि।
माधो सिंह -गुरुदेव, ओ नीतिज्ञ अछि; ते प्रत्यक्ष किछु नहि करैत अछि । किन्तु अप्रत्यक्ष रूपे ओ किछु-टा बाँकी नहि रखलक अछि। राजपूत रमणीसँ विवाह करब की हिन्दू-धर्मक रक्षा करब थीक? तनसुखसन रत्न के धर्म-परिवर्तनक हेतु विवश करब की अन्याय नहि ?
स्वामी हरिदास- दोसरक टीका-टिप्पणी करबासँ पूर्व हमरालोकनिके अपना निर्बलता पर ध्यान देबाक चाही। जे हमरा-लोकनि अधःपतित भए गेलहुँ अछि, ते ने रूप-वैभव फेरमे पड़ि अपन सनातन धर्मक परित्याग कए रहल छी ।किन्तु तनसुख…(आंखि नोर सं डबडबा जाइछ)।

माधो सिंह -गुरूदेव, हमरहु एकर बड़ खेद भए रहल अछि जे तनसुख सन धार्मिक एवं सदाचारी व्यक्ति एकाएक……
स्वामी हरिदास -हमरा एहिमे रहस्य बूझि पड़ेत अछि। हम तुरन्त आगराक हेतु प्रस्थान करब ।
तनसुखस भेट नहि हैत, ताबत आत्माके शान्ति
नहि भेटत।

माधो-बाहर डोली राखल अछि। जखनहि अपनेक आज्ञा भेटत, हमरालोकनि अपनेकें डोलीमे उठाए विदा हैब।
स्वामी हरिदास-अहाँलोकनि प्रस्तुत होउ, हम एखनहि विदा हैब।
माधो सिंह –जे ओज्ञा
(प्रस्थान करैत अछि । पर्दा खसैछ ।)

दोसर दृश्य
[शाही दरबार ठसाठस भरल अछि । सम्राट अकबर एक टा उच्च सिंहासन पर बैसल अछि । गायनाचार्य तनसुख उत्तम वस्त्रसँ सुसज्जित भए सम्राटक निकट एक सुन्दर आसन पर बैसल अछि । एक कातमे किछु मौलवी कुरान शरीफ
लेने ठाढ़ अछि। सम्राट अकबर बजबाक हेतु उद्यत होइत अछि । दरबार निस्तब्ध भए जाइछ।)

अकबर (तनसुखके )-गायनाचार्य, अहाँके इस्लाम-धर्म ग्रहण करैत देखि हमर हृदय आनन्दविभोर भए रहल अछि ।
तनसुख ( ठाढ़ भए)-सम्राट् , ई हमर सौभाग्य । (पुनः बैसि जाइछ)
अकबर-हमर ई इच्छा अछि जे एहि पुनीत अवसर पर अहाँ अपन सुन्दर गानसँ आ अहाँक प्रेयसी अपन विलक्षणनृत्यसँ सभासद लोकनिक मनोरञ्जन करिऐन्हि ।
तनसुख ( ठाढ़ भए )-सम्राटक इच्छानुकूल कार्य करब हमरा-लोकनिक कर्त्तव्य।
[तनसुख तानपुरा हाथमे लए गान प्रारम्भ करैछ । ओकर प्रेयसी नर्तकीक भेषमे आबि नृत्य करैछ। तनसुख जाहि भाव’क गीत गबैछ तकरा नर्तकी अपन भाव-भंगिमा द्वारा प्रकट करैछ । समस्त दरबार आनन्दमग्न अछि । किछु कालक उपरान्त गान एवं नृत्य समाप्त होइछ । ‘वाह-वाह”कमाल’ आदि शब्दसँ दरबार गुञ्जायमान भए जाइछ। ]
अकबर-गायक, अहाँक प्रेयसी त अहूँ सँ बेसी कमाल कएलन्हि । वस्तुतः ओ अहींक सहचरी होएबा योग्य छथि । अहाँ हृदयगत भावके नाद द्वारा अभिव्यक्त करैत छी आ’ ओ अपन नृत्य द्वारा। दुहूक संयोग अपूर्व हैत-कला-जगतक हेतु ई एक अनुपम देन सिद्ध हेतैक।
तनसुख-सम्राट, एकर सभ-टा श्रेय अहींके अछि।
अकबर (नर्तकीसँ)-भारत-श्रेष्ठ नर्तकी, अहाँ अपन अनुपम नृत्य द्वारा हमरा सभक मन मुग्ध कएल। आइ अहाँ हमरासँ मनोवांछित पुरस्कार माँगि सकैत छी।
नर्तकी-सम्राट, अपने जे निधि हमरा सौंपल अछि, हम ओएह पाबि नेहाल भए गेलहुँ । सङ्गीतक देवता तनसुखक अतिरिक्त हमरा आओर कोनो वस्तुक कामना नहि ।
अकबर-नर्तकी, अहाँके वस्तुतः एक अनुपम निधि हाथ लागल अछि। अकबर शाहक नव रत्नमेसँ एकके अहाँ हथिया लेल।.. आब बाकी विधि पूरा होएबाक चाही।
(मौलवी दिस ताकि) मौलवी!…………..
मौलवी -हुक्म आलमपनाह ।
अकबर- आब जे विधि बांकी हो से शीघ्र सम्पन्न करू ।(तनसुखकें ) अहुँ प्रस्तुत भए जाउ ।
तनसुख (ठाढ़ भए)-जे आज्ञा ।

[ मौलवी तनसुखके मध्य दरबारमे अनैत अछि। पुनः कुरान शरीफ हाथमे लए एक आयत पढ़ैत अछि। तनसुख ओकरा दोहरबैत अछि।]

अकबर (अत्यन्त प्रसन्न भए)-सभासदगण ! आइ संगीताचार्य तनसुख इस्लाम धर्म ग्रहण कएलन्हि। जे भेल ताहिसँ हमरा अत्यन्त प्रसन्नता अछि। किन्तु प्रसन्नता कारण ई नहि जे एक हिन्दू मुसलमान बनल अछि,अपितु ई जे दिनानुदिन हिन्दू-मुसलमान एक भए रहल अछि। आइ दिनसँ हमर प्रजा गायक-रत्न तनसुखके तानसेनक नामसँ सम्बोधित करत आ’ नर्तकीके कादम्बरीक नामसँ।

[ दरबार ‘तानसेनक जय” “कादम्बरीक जय” आदि नारास गुंजि उठैछ। नर्तकी एक सुन्दर पुष्पमाल तानसेनके पहिरा दैत छैक । सर्वत्र करतल-थ्वनि होइछ । पर्दा खसैछ ।]
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तेसर दृश्य

[तानसेन’क महल। तानसेन उद्विग्न मोनसँ बैसल अछि। दरबान’ क प्रवेश।]

दरबान (सलाम कए)-हजूर, बड़ी कालसँ एक बबाजी अपनेक प्रतीक्षामे बैसल छथि ।

तानसेन (चौकि)-के ? बबाजी ?? बजा अनहुन ।

[ दरबान प्रस्थान करैछ, आ पुनः किछु कालक अनन्तर एक बबाजीक संग प्रवेश करैछ।]

तानसेन (नवागन्तुक बबाजी दिसि ताकि)-के ? बिरजू भाई ।(उठि कए बबाजीक आलिंगन करैछ।) पहिने बैसह,तखन कोनो गप्प ।

[ दुहू व्यक्ति आसन ग्रहण करैछ । दरबानक प्रस्थान । ]

बिरजू-आइ-काल्हि सभठाम लोक तोरे अदगोई-बदगोई बजैत रहैत छह। दिल्लीश्वरक डरे केओ किछु नहि कहैत छह ।आन केओ रहैत, त लोक ओकरा बारि दितैक ।

तानसेन-तोरा तँ सभ बात ज्ञाते छह । तखन .. …

बिरजू-तो जे किछु कएलह, ताहि समबन्धमे हमरा आव किछु नहि कहवाक अछि। हम तँ तोरा केवल एक समाचार सुनाबए आएल छिबहु।

तानसेन (उत्सुक भए)-कोन समाचार ?

बिरजू-गुरुदेव काल्दि आगरा आबि रहल छथि ।

तानसेन- गुरुदेव!………… आह ! कोन मुह लए हुनका लग जाएब।……… “ओ की सोचैत हेताह ? हुनका ओ स्वप्नहुँमे ई विश्वास नहि भए सकैत छलैन्हि जे हम विधर्मी बनि सकैत छी। किन्तु गुरुदेव स्वयं एक महान् कलाकार छथि। की ओ कलाकारक हृदयक हाहाकारके
नहि बूझि सकताह ? ओ नहि बुझताह, तँ के बूझत? नहि जानि, गुरुदेव पर एहि घटनाक केहन प्रभाव पड़ल हेतैन्हि ।

बिरजू -सुनबामे तँ इएह आएल अछि जे लोक हुनक कान भरि रहल छन्हि । किन्तु…..

तानसेन-किन्तु की ?

बिरजू-ओ सतत् हिमालय सदृश गंभीर बनल रहैत छथि ।काल्हि हुनकहि लगसँ एक व्यक्ति आएल छल । ओ बाजल जे गुरुदेवक आनन पर ने प्रसन्नताक आभा दृष्टिगत् होइछ आ ने अप्रसन्नताक कोनो चिन्ह; कनेक अन्यमनस्क धरि ओ अवश्ये रहैत छथि।…… “हमरा विचारे यदि ओ एहि नगर आबथि तँ तों हुनक भेंट अवश्य करहुन्ह।
तानसेन-भेट कतहु नहि करिऐन्हि । ओहन महान व्यक्तिक तँ दर्शनहुँ दुर्लभ । ताहुमे हम त हुनक चिर-ऋणी छिऐन्हि । नेनहिँसँ पाललैन्हि- पोसलैन्हि आ’ नियमित रूपे शिक्षा दे संगीतशास्त्रमे पारंगत बनौलैन्हि। हम हुनक चरण-रज प्राप्त करबाक हेतु अवश्य जाएब ।

पर्दा खसैछ

चारिम दृश्य

[सायंकाल। कैलाश-मंदिर। माधो सिंह पूजाक सामग्री एकत्र कए रहल अछि।तानसेनक प्रवेश।]

तानसेन-माधो भैया, गुरुदेव कहाँ छथि ?

माधो सिंह -के ? तनसुख ! जाह, तों ई की कएलह? गुरुदेवक के कएल-धएल छलैन्हि, ताहि सभके तो चौपट्ट कए देलहुन्ह ।ओ जहियासँ तोहर कुकृत्य सुनलखुन्ह तहियासँ सतत् गुमसुम रहैत छथि ।

तानसेन-गुरुदेव नीके रहैत छथि की नहि ?

माधो सिंह -कप्पार नीके रहताह । तोरासन शिष्य जखन रुप-वैभवक हेतु विधर्मी बनि जाए, तखन…..

तानसेन -माधोभैया,भ्रममे जुनिपडू ।तानसेन रूप-वैभव नहि, कलाक पूजारी अछि। कलाकारके सबसँ बेसी कलास प्रेम रहैत छैक । हम यवन-नर्तकीक रूप-लावण्य पर मोहित भए नहि, अपितु ओकरा कला पर मोहित भए ओकरा संग विवाह कएल ।
माधो सिंह -मिथ्या ! तनसुख, तो हमरा भ्रममे नहि दए सकैत छह । केवल कलाक हेतु विधर्मी बनि जाएब कहाँधरि युक्तिसंगत छैक ?

तानसेन-अहाँ जे बूझी; किन्तु हम त जीवनक प्रारम्भहिस कलाके अपन धर्म मानल। तकर परित्याग एखनहु नहि कएल अछि। तखन हम विधर्मी कोना भेलहुँ ?दोसर, कलाक मन्दिरमे कानो जातिक प्रवेश निषेध नहि।तखन यदि एक कलाकारक संग दोसर कलाकारक प्रेम होअए तँ से ने असम्भव आ’ने अस्वाभाविक ।

माधो सिंह -मानल जे कलाकारक मध्य प्रेम हैब पूर्ण सम्भव आस्वाभाविक छैक। परञ्च ई कहह जे तो ही किएक धर्म-परिवर्तनक हेतु धड़फड़ाएल छलाह ? की ओ नर्तकी धर्मपरिवर्तन नहि कए छकैत छलि ?

तानसेन–से अहाँ लोकनि होमए दितिऐक तखन ने । एक हिन्दू मुसलमान बनि सकैत अछि, कितु एक मुसलमान हिन्दू नहि बनि सकैत अछि। ई त अछि अहाँ लोकनिक समाजिक विधान। एहिमे नर्तकीक कोन दोष?

माधो सिंह -की तों ओकरा रूप-लावण्य पर आसक्त नहि छलाह ?की वैभव-लिप्सा तोरा विधर्मी नहि बनौलकहु ?

तानसेन-ओ नर्तकी रूपवती अवश्य अछि । किन्तु ओहेन-ओहेन सहस्त्रहु सुन्दरी हमर एक संकेत पर उपस्थित भए सकैत छलि।तखन रहल वैभवक बात; ताहि सम्बन्धमें एतबे कहब जे सम्राट पहिनहुँ कम वैभव नहि प्रदान कएने छलाह ।

माधो सिंह -बेस बाबू, आब पूजाक बेर भए गेल । अहाँक संग कतेक काल धरि चिरौरी करैत रहब ?

तानसेन-किन्तु गुरु देवक पता तँ नहि कहलहुँ ?

माधो सिंह -ओ निकटहि यमुनाक कातमे चिन्तामग्न बैसल छथि ।

तानसेन – हम ओहि ठाम जाए रहल छी।

माधो सिंह – बेस।

(माधो सिंह’क प्रस्थान। पर्दा खसैछ)

आगू अगिला अंक में…..की हैत जखन गुरु जी लग तनसुख पहुंचता।
दोसर आ अंतिम भागअवश्य पढ़ी।

आभार💐🙏