दोसर भाग….…………. पाँचम दृश्य

[ कलकल प्रवाहिनी यमुनाक तट।एकटा विशाल वृक्षक नीचाँ स्वामी हरिदास चिन्तामग्न बैसल छथि। सहसा तानसेन पाछू सँ आबि स्वामी जीक चरण पर खसि कानए लगैछ।]

स्वामी हरिदास (चौंकि कए)-के ? तनसुख (तानसेनकें हृदयसँ लगालैत छथि।) बेटा!

तानसेन ( अश्रुप्लावित नयनसँ)-गुरुदेव । हम अहाँ के असीम क्लेश पहुँचाओल | हमरा क्षमा दान दिअऽ।

स्वामी हरिदास-पुत्र! अहाँक विषयमे सभ समाचार ज्ञात भेला पर हमरा कतेक दुःख भेल ओ हमर हृदयेटा जनैत अछि। किन्तु हठात् एखनहुँ ई विश्वास नहि होइत अछि जे अहाँ एक नारीक क्षणभंगुर रूप-लावण्य पर मोहित भए स्वधर्मक परित्याग कएने हैब। हमबस एतबे पूछए चाहैत छी जे की अहाँ वस्तुतः एक नर्तकीक मोहमें आन्हर भए तन-मनसँ इस्लाम-धर्म ग्रहण कएल ?

तानसेन ( रुद्धकण्ठसँ)-महाप्रभ ! ननहिसँ हम अपना तनके अपनेक सेवार्थ एवं मन’के स्वर- साधनाक हेतु अर्पित कएने छी।

स्वामी हरिदास – तखन फेर रूपक मोह ?

तानसेन-गुरुदेव ! ने हमरा रूपक मोह भेल आ’ ने ओहि नारी कें।

स्वामी हरिदास -तखन ओकरा प्रेम कथीसँ छैक ?

तानसेन-संगीतसँ।

स्वामी हरिदास – ओकर धर्म की छैक ?

तानसेन-कला।

स्वामी हरिदास -ओकर उद्देश्य ?

तानसेन -स्वर-साधना ।

स्वामी हरिदास -तखन फेर ई वैवाहिक बन्धन ?

तानसेन-महाप्रभु! ओ नारी हमर संगीत-कला पर मोहित अछि। ओकरा अन्तरक कलाकार हमरा कला पर विमुग्ध भए अपन सर्वस्व अर्पित कए देलक। तकरहि परिणाम…………..

स्वामी हरिदास -की ई सम्बन्ध सर्वदा अविच्छेद्य रहत ?

तानसेन-कला एवं कलाकारक प्रेम सर्वदा अविच्छेद्य रहैत छैक ।किन्तु, गुरुदेव, अहाँ कलाक आदिस्रोत छी, अहाँ हमर जीवन छी, हमर सर्वस्व छी । अहाँक हेतु हम ओहि तुच्छ नारीक कोन कथा, विश्वक सम्पूर्ण सम्पदाक परित्याग करबाक हेतु प्रस्तुत छी।

स्वामी हरिदास -पुत्र, हमरा पूर्वहिसँ ई अनुभव होइत छल जे अहाँ मनसं कथमपि इस्लाम धर्म ग्रहण नहि कएने हैब ।

तानसेन -गुरुदेव! कतोक व्यक्ति हमरा विधर्मी बुझि हेय दृष्टिसं देखैत अछि।

स्वामी हरिदास -ओ लोकनि मूढ़मति छथि, धर्मक बात की जनथिन्ह।धर्मक गति बड़ सूक्ष्म होइत छैक। कलाकारक केवल एकहि टा धर्म होइत छैक-कलाक साधना ! ओकरा हेतु जेहने हिन्दू , तेहने मुसलमान। कला ओकर जाति छैक, कला ओकर धर्म।

तानसेन-प्रभु, हमरा अहाँक अशीर्वाद चाही।

स्वामी हरिदास -हमर रोम-रोम अहाँके आशीर्वाद दैत अछि।पुत्र, हमरा एहि बातक अत्यन्त प्रसन्नता अछि जे हमर शिष्य संगीत-कलाक अनन्य पुजारी अछि ।वत्स, स्वर-साधना ईश्वर-प्राप्तिक अनुपम साधन थीक ।हम आशीर्वाद दैत छी जे अहाँ अपना पत्नीक सहयोगसं स्वर-साधनामे पूर्ण सफलता प्राप्त करब।

[ गुरु-शिष्य एक दोसरक आलिंगन करैछ। दुहक नेत्रसँआनन्दाश्रु बहए लगैछ। पर्दा खसैछ । ]

छठम दृश्य

[ तानसेनक महलसँ सटल एक उद्यान। तानसेन उद्विग्न मनसँ टहलि रहल अछि । पाछूसँ कादम्बरीक प्रवेश । ]

कादम्बरी-प्रियतम !

तानसेन (चौंकि)-के ? (पाछू ताकि) ओ, अहाँ।(मुंह पर मुस्कान अनबाक चेष्टा करैछ।)

कादम्बरी -प्रियतम, एकटा गप पूछू ?

तानसेन -अवश्ये पूछू ।

कादम्बरी -हमरासँ विवाह कए आब अहाँ पछतात’ ने रहल छी?

तानसेन-आइ अहाँक मनमे एहन भावना किएक उठल?

कादम्बरी-एकर कारण स्वयं अपनासँ पूछू ।

तानसेन-हम अहाँक तात्पर्य नहि बुझलहुँ।

कादम्बरी-आइ-काल्हि अहाँ एतेक अन्यमनस्क किएक रहैत छी? बाल-बच्चा, घर-परिवार सभ दिसिसँ अहाँ विरक्त जकाँ रहैत छी । कादम्बरी आब तेसर शिशुक जननी होमए जा रहल अछि। ओकरामे आब पहिलुका रूप-लावण्य नहि। अहाँक विरक्तिक कहूँ इएह कारण तँ नहि अछि।

तानसेन-छिः! हमरा नहि आशा छल जे अहाँ हमरा विषयमें एहि प्रकारक कल्पना करब । तानसेनके कहियो रूप-लावण्य मोह नहि भेलैक। अहाँ ओकरा दृष्टिमे एखनहुँ ओएह छी जे पहिने छलहुँ; बल्कि अहाँक महत्त्व आओर बढ़ि गेल अछि।

कादम्बरी-तखन फेर ई उदासीनता ?

तानसेन–एकर दोसर कारण छैक । परसू राति हम एक बड़ अप्रीतिकर स्वप्न देखल।

कादम्बरी (उत्सुक भए) की देखल?

तानसेन-देखल जे गुरूदेव बड़ रुग्न छथि । रुग्नावस्थामे केओ हुनक परिचर्या केनिहार नहि छैन्हि।बारम्बार ओ हमरे नाम लए छटपटाए रहल छथि ।

कादम्बरी–एहि लेल उदास होएबाक कोनो कारण नहिं। एक दिन जा कए गुरूदेवक भेट कए आबिऔन्हु ।

तानसेन–हमरहु सएह विचार होइत अछि। गुरूदेव हमरहिं बेटा जकाँ पाललैन्हि । हम जे किछु जनैत छी, तकर सभटा श्रेय हुनकहि छैन्हि। किन्तु…

कादम्बरी-किन्तु की ?

तानसेन-अहाँ के एहि अवस्थामे छोड़ि जाएब ठीक नहि हैत ।

कादम्बरी-आगरामे वैद्यक कमी नहि छैक।…… कनेको चिन्ता जुनि करी। अहाँ गुरूदेवक भेंट अवश्य करिऔन्हु । ओ तँ आब पाकल आम भेलाह। कोन ठेकान, कखन…

तानसेन-हमरहु त सएह होइत अछि। गुरूदेवक किछुओ सेवा कए सकब, तँ एहि नश्वर जीवनके सफल बूझब।किन्तु (उदास भए) सम्राट जाए देथि तखन ने

कादम्बरी-ओ किएक रोकताह ?

तानसेन-ईद लगीच आबि गेलैक। जल्सा में हमर रहब आवश्यक…………

[ दरबानक प्रवेश]

दरबान-पहिने जे बबाजी आएल छलाह से पुनः भेंट करए आएल छथि।

तानसेन-शीघ्र बजा अनहुन ।

[ दरबानक प्रस्थान। किछु कालक उपरान्त ओ बबाजीक संग पुनः प्रवेश करैछ।]

कादम्बरी-ई त अहींक बाल-संगी छथि ।

तानसेन -आबह बिरजू भाइ (आलिंगन करैछ )। कुशलसँ छल’ह की ने…..

बिरजू (उदास भए)–हँ, हम तँ सकुशल छी;किन्तु…

तानसेन-सब बात खुलासा कहह ।

बिरजू-गुरुदेवक हालत बड़ खराब छैन्हि। सम्भवतः ओ आब बँचबो नहि करताह । ओ तोरासँ भेट करबालए बड़ विकल छथि।

तानसेन (रुद्ध स्वरमे)–ओ एखन कतए छथि ?

बिरजू-प्रयागमे ।

तानसेन-हम आइए सम्राट सँ आज्ञा लए प्रयागक हेतु प्रस्थान करब । तोहूँ चलबह ?

बिरजू–हँ, हमहुँ तोरे सङ्ग चलब सैह ठीक ।

कादम्बरी-अवश्य जाउ; शीघ्र जाउ। एक हमहीं एहन अभागलि छी जे रुग्न रहबाक कारण हुनक दर्शन नहि के सकब।

[ पर्दा खसैछ।]

सातम दृश्य

[शाही दरबार ठसाठस भरल अछि।सम्राट अकबर सिंहासन पर विराजमान अछि।तानसेनक प्रवेश । ]

तानसेन–दिल्लीश्वरक जय ।

अकबर-संगीत-मार्त्तण्ड तानसेनक स्वागत।अहीं विनु दरबार नीरस बनल छल।आब अपन सुमधुर संगीतसँ एकरा सरस बनाउ।

तानसेन-सम्राट् ! आइ हम एक विशेष प्रयोजनसँ दरबार आएल छी।

अकबर (उत्सुकतापूर्वक )-कोन प्रयोजन ?

तानसेन–राजन् ! हमर गुरूदेव बड़ रुग्न भए गेलाह अछि ।शरीरमे सतत् ज्वर रहैत छैन्हि । दिनानुदिन स्वास्थ्य खराबे भेल जाइत छैन्हि । काल्हि खबरि आएल अछि जे ओ हमरा देखबाक हेतु अत्यन्त विकल छथि ।

अकबर-ओ एखन कतए छथि ?

तानसेन-प्रयागमें ।

अकबर-कोन ठाम ?

तानसेन–संगम पर एकटा विशाल कृष्गा-मन्दिर छैक ताहिमे ।

अकबर-एहि लेल कनेको घबड़एबाक नहि काज। अहाँ एकदम निश्चिन्त रहू । हम तुरन्त राजवैद्यके इलाहाबाद पठा दैत छिऐहि। ओ हुनक चिकित्सा करथिन्ह।ओहि ठामक सूबेदारके सेहो हुनका लेल पूर्ण प्रबन्ध करबाक हेतु कहा पठा दैत छिऐक।

तानसेन (रुद्धस्वरमे)–दिल्लीश्वर, गुरूदेव हमरा देखबाक हेतु अत्यन्त विकल छथि। यदि हम नहि जाएब त हुनका हृदय पर बड़ आघात पहुँचतैन्हि।

अकबर -किन्तु ओहि ठाम जा कए अहाँ करब की? अहाँ वैद्य त छी नहि जे हुनक चिकित्सा करबैन्हि । कोनहुसँ दृष्टिसँ देखला पर अहाँक जाएब ठीक नहि बूझि पडैतअछि। धार्मिक दृष्टिसँ देखू तँ परसू ईद छैक; मानवताक दृष्टिसँ देखू तँ गर्भ-पीड़ासँ क्लेशित पत्नी के एकसरि छोड़ि कतहु जाएब उचित नहि । तेसर, अहाँ बिनु ईदक जल्सा में रङ्ग की आबि सकतैक ?

तानसेन (उदाम भए)-सम्राट ! हमरा जाएब परम आवश्यक बूझि पड़ैत अछि।नहि गेला सं गुरूदेव के असीम दुःख हेतैन्ह।सम्भवतः एकरा ओ सहनो नहि कए सकताह।जहाँ धरि धर्मक प्रश्न छैक, ईद प्रति वर्ष अओतैक। किन्तु गुरू चलि बसताह त भेट होएब असम्भव भए जाएत । आ’ जहाँ धरि पत्नीक रुग्ननताक प्रश्न छैक,अपने चिकित्साक सब प्रबन्ध करा सकैत छिऐक । सम्राट् ! यदि हमरा नहि जाए देब,तँ हमरा शरीरसँ प्राण स्वतः छटपटाकए बहरा जाएत ।

अकबर (गम्भीर मुद्रामे)यदि जएबाक हेतु अहाँ एतेक उत्कण्ठित छी, तँ हम अहाँ के नहि रोकब।अहाँ के गुरूक दर्शनक हेतु जएबाक अनुमति दैत छी।

तानसेन (पुलकित भए)-समाट् ! हम अपनेक चिर-ऋणी रहब । भगवान अपनेक सदृश उदार समाटके चिरायु राखथि। बेस तखन आब हम जाएत छी। यथाशीघ्र आएबाक प्रयत्न करब।

[ तानसेन समट के प्रणाम कए प्रस्थान करैछ।]

अकबर ( बीरबलसँ)-बीरबल, मनुष्यक विचित्र चरित्र देखि कखनो-कखनो बड़ आश्चर्य होइत अछि।तानसेन जाहि नारीक प्रेममे पागल भए इम्लाम कबूल कएलक ओकर कनेको चिन्ता नहि कए गुरूक परिचर्या करबाक हेतु विदा भए गेल अछि।धर्म, पारिवारिक मोह,राजाज्ञा आदि कोनहु व्यवधानके ओ नहि मानलक ।

बीरबल (हँसैत )-समाट् , हमर धृष्टता क्षमा करब। अपने भ्रममे छी जे तानसेन एवं ओकर पत्नी मुसलमान अछि।ओ सभ ने त हिन्दू अछि आ’ ने मुसलमान।ओकरा सभक केवल एक धर्म छैक-कलाक आराधना! ओकरा सभके स्वर- साधनामे पारस्परिक सहयोगक आवश्यकता छलैक, तें ओ सभ प्रणय-बन्धन स्वीकार कएलक। एखन तानसेनक कलाक आदिस्रोत स्वामी हरिदास रुग्न छथि,तें ओ सभ किछु छोड़ि अपन गुरूक सेवा करबाक हेतु विदा भए गेल अछि। एहि बातक ओकरा पत्निहुँके किछु दुःख नहि हेतैक। ओ तँ ई सोचि आओर प्रसन्न होइत हैत जे पति गुरूक सेवा करए गेलाह अछि।

अकबर-हमरा एहि बात पर विश्वास नहि होइत अछि ।

बीरबल – प्रत्यक्षमे प्रमाणक कोन प्रयोजन ? चलल जाओ तानसेनक महल, ओतए सभ बात ज्ञात भए जाएत।

अकबर-बेस ।

[ दुहूक प्रस्थान । पर्दा खसैछ।]

आठम दृश्य

[ तानसेनक महल । कादम्बरी, समाट अकबर एवं बीरबलक सङ्ग वार्तालाप कए रहल अछि।]

बीरबल-कादम्बरी, सम्राट् अहाँसँ एकटा बात पुछबाक हेतुआएल छथि।

कादम्बरी-हमर ई परम सौभाग्य जे बादशाह सलामत अपन चरण-धूलिसँ हमरा कुटीके पुनीत कएलैन्हि । हमरासँ जे किछु पूछल जाएत, तकर यथोचित उत्तर देबाक प्रयत्न करब।

अकबर-अहाँके तँ ई ज्ञात हैत जे गायक शिरोमणि तानसेन एखन आगरामे नहि छथि?

कादम्बरी-हँ, जहाँपनाह ! हुनक गुरू स्वामी हरिदास बड़ रुग्न छथिन्ह । ओ हुनकहि सेवा करबाक हेतु इलाहाबाद गेलाह अछि।

अकबर-हमरा विचारे एखन हुनक गेनाई ठीक नहि भेलैन्हि।एक त’ अहाँक स्वास्थ्य ठीक नहि अछि, दोसर ईदसन पाबनि निकट । एहेन अवस्थामें ओ अहाँ के एकसरि छोड़ि कतहु चलि देथि से ठीक नहि ।

कादम्बरी-आलमपनाह, अपने हमरा स्वस्थ्यक चिन्ता जुनि करी।अपनेक राजवैद्य हमरा चिकित्साक हेतु सतत् प्रस्तुत रहताह । आ’ बच्चाक बोझ ऊघब त माइएक जिम्मा रहैत छैक।

अकबर-ईदक कोनो महत्त्व नहि ?

कादम्बरी-ओकर बड़ महत्त्व छैक । किन्तु एकटा कलाकार दृष्टिमे गुरूक महत्त्व ओहिसँ बेसी छैक। ईद तँ परुकहुँ साल मनाओल जा सकैत छैक, किन्तु गुरू फेर नहि भेटि सकैत छथि।

अकबर-गुरूक एतेक महत्त्व ?

कादम्बरी-कारण स्पष्ट छैक, समाट् ! एक गायक गुरूहिक कृपासँ स्वर-साधनामें सफल होइछ ।

बीरबल (मुस्कियैत)–यदि तानसेन मुसलमान नहि बनितथि,तँ अहाँ हिन्दू बनितिऐक ?

कादम्बरी-अवश्य ;यदि अहाँलोकनि बनए दितहुँ। किन्तु से विधान अहाँलोकनिक समाजमे कहाँ ?

बीरबल–एकर तँ तात्पर्य ई भेल जे अहाँलोकनि अपना सुविधानुसार कखनो कोनो धर्म ग्रहण कए सकैत छी।की स्वर-साधकक कोनो स्थायी धर्म नहि?

कादम्बरी-अवश्य छैक । स्वर-साधकक स्थायी धर्म छैक स्वर-साधना।जाहि धर्मके अहाँलोकनि एतेक महत्त्व दैत छिऐक ओकरा हम सभ केवल बाह्याडम्बर बुझैत छिऐक।

बीरबल-ई तँ शुद्ध नास्तिकपना भेल ।

अकबर-अवश्य।

कादम्बरी (अकबरस)-सम्राट, हमर धृष्टता के क्षमा करब ।…सम्भवतः हमरा लोकनिक संसार सँ अपने सभ पूर्ण अपरिचित छी। कला-जगतमें नहि केओ हिन्दू अछि,आ नहि केओ मुसलमान । हमरा लोकनिक ईश्वर थीक स्वर,आ’ धर्म थीक स्वर-साधना। एहि धर्मक पैगम्बर ओ थिकाह जे शुद्ध रागिनी शिक्षा दय स्वर’क सिद्ध योगी बनाबथि।

अकबर-अहाँक तात्पर्य?

कादम्बरी-हमर तात्पर्य स्पष्ट अछि। हमरा लोकनिक असल उस्ताद।हमरा स्वामी’के गुरू स्वामी हरिदास एखन अन्तिम श्वास लए रहल छथि। पतिदेव हुनकहि सेवा निमित्त गेलाह अछि। यदि हुनकासँ गुरूक किछुओ सेवा भए सकतैन्हि,तँ अपनाके यो पूर्ण सौभाग्यशाली बुभताह;आ’ हमरो कम गौरवक अनुभव नहि हैत।

बीरबल-अहाँ सभ धन्य छी जे कला आ’ कला-गुरू क’ प्रति एहन निष्ठाभाव रखैत छी। हमरा विश्वास अछि जे अहाँ सभ स्वर-साधनामे पूर्ण सफल होएब, आ’ बाह्याडम्बरसँ पूर्ण धर्म सभक पोल खोलि विश्वमे वास्तविक एकता स्थापित करब ।

कादम्बरी-अपनेक शुभ-कामना शीघ्र फलित होअरो। हम तँ चाहैत छी जे हमरालोकनिक पवित्र स्वर-लहरी विद्वेष आ वैमनस्यसँ भरल एहि धरित्री पर प्रेम’क मन्दाकिनी बहाबए, आ’ स्वार्थ आ धर्मान्धताक कलंक-कालिमाके धो-पोछि नूतन विश्वके निर्माण करए ।

बीरबल ( अकबरसं )–सम्राट, आब बूझल ?

(उत्तरमे अकबर शिर झुका लैत अछि।कादम्बरीक आँखिसँ तेज बरसि रहल अछि, आ’ बीरबलक मुंह पर अछि मुस्कान ।)

[ जवनिका पतन ]
समाप्त
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